पृष्ठ:भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र का जीवन चरित्र.djvu/१०७

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भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्न (८६) हाल देना अस्वीकार किया, लोग आ आकर फिर गए, लोगो को बडा क्रोध हुआ और दूसरे दिन बनारस-कालिज मे कुछ प्रतिष्ठित लोगो ने एक कमेटी की जिसमे निश्चय हुआ कि शोक-समाज कालिज मे हो, मैजिस्ट्रेट की कारवाई की रिपोट गवर्मेन्ट मे को जाय और राजा शिवप्रसाद को किसी सभा सोसाइटी में न बुलाया जाय । साहब मैजिस्ट्रेट को समाचार मिला, उन्होने अपनी भूल स्वीकार की और प्राग्रह करके सभा टाउनहाल में कराई। राजा साहब बिना निमन्त्रण उस सभा मे पाए और उन्होने कुछ कहना चाहा, परन्तु लोगो ने इतना कोलाहल भी किया कि वह कुछ कह न सके । इस पर चिढकर राजा साहब ने काशिराज से इनको पत्र लिखवाया कि आपने जो राजा साहब का अपमान किया वह मानो हमारा अपमान हुआ, इसका कारण क्या है ? महाराज का अदब करके इसका उत्तर तो कुछ न लिखा, परन्तु जुबानी कहला भेजा कि महाराज के लिये जैसे हम वैसे राजा साहब, हमारे अपमान से महाराज ने अपना अपमान न माना और राजा साहब के अपमान को अपना समझा, तो अब हम अापके दरबार में कभी नावंगे। यद्यपि ये अत्यन्त ही नम्र स्वभाव थे और अभिमान का लेश भी न था, परन्तु जो कोई इनसे अभिमान करता तो ये सहन न कर सकते। शील इनका सीमा से बढा हुना था, कोई कितनी भी हानि करे ये कभी कुछ न कह सकते और न उसको पाने से रोकते। एक महापुरुष प्राय चीजें उठा ले जाया करते। जब पकडे जाते तब दुर्गति करके इनके अनुज बाळू गोकुलचन्द्र ड्योढ़ी बन्द कर देते । परन्तु जब भारतेन्दु जी बाहर से आने लगते यह साथ ही चले आते । यो ही बीसो बेर हुमा, अन्त मे भारतेन्दु जी ने भाई से कहा कि "भैया, तुम इनकी ड्योढी न बन्द करो, यह शख्स कद्र करने योग्य हैं, इस की बेहयाई ऐसी है कि इसे कलकत्ता के 'अजायब- खाने में रखना चाहिये"। निदान फिर उनके लिये अविमुक्तद्वार ही रहा। इन्होंने अपने स्वभाव को एक कविता मे स्वय कहा है, उसी को हम उद्धृत करते हैं इस पर विचार करने से उनकी प्रकृति तथा चरित्र का पूरा पता लग सकता है- “सेवक गुनीजन के चाकर चतुर के हैं, कविन के मीत चित हित गुन गानी के । सीधेन सो सीधे, महा बाँके हम बाकेन सो, हरीचन्द नगद दमाद अभिमानी के॥ चाहिबे की चाह, काहू की न परवाह नेही नेह के, दिबाने सदा सूरत निवानी के ।