पृष्ठ:भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र का जीवन चरित्र.djvu/११०

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भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र (१३) प्राज्ञा नहीं हुई . यद्यपि ससार के कुरोगो से मन प्राण तो नित्य ग्रस्त थे ही, किन्तु चार महीने से शरीर से भी रोगग्रस्त तुम्हारा-- हरिश्चन्द्र-- रोग पूरा पूरा निवृत्त न होने पाया, चलने फिरने लगे कि फिर शरीर की चिन्ता कौन करता है, अविरल लिखने पढने का परिश्रम चलने लगा। योंही कुछ दिनो लस्टम फस्टम चले, कि मरने से एक वष पहिले श्वास और खांसी का वेग बढा, समझा कि दमा हो गया है। शरीर नित्य नित्य क्षीण होने लगा, यहाँ तक कि थोडे दिन पहिले चलने फिरने की शक्ति इतनी घट गई कि पालकी पर बाहर निकलते थे। लोग दमा के धोखे मे रह गए, वास्तव मे क्षयरोग हो गया था। अधिक पान खाने के कारण कफ के साथ रक्त का तो पता लगता न था, केवल श्वास कास की दवा होती थी। निदान अन्तिम समय बहुत निकट पाने लगा। मरने से महीना डेढ महीना पहिले इनका हृदय कुछ शाति रस की ओर अधिक फिर गया था, "हरिश्चन्द्र चन्द्रिका" को अन्तिम सख्यानो मे प्रकाशित शान्तरस की कविता सब इसी समय की बनी हुई हैं जहाँ तक मुझे स्मरण प्राता है, निम्न लिखित पद के पीछे कोई कविता नही की- "डडा कूच का बज रहा मुसाफिर जागो रे भाई । देखो लाद चले पन्थी सब तुम क्यो रहे भुलाई ॥ जब चलना ही निहचै है तो लै किन माल लदाई । हरीचन्द हरि पद बिनु नहिं तौ रहि जैही मुंह बाई॥" इसी समय प्राय नित्य ही, वह पद्माकर कवि का निम्न लिखित कवित्त कहते मौर घण्टो तक रोते रह जाते थे- "व्याध हूँ ते बिहद, असाधु हो अजामिल लौं, ग्राह तें गुनाही, कहौ तिन मे गिनाओगे । स्योरी हौ, न शूद्र हो, न केवट कहूँ को त्यो, न गौतमी तिया हौं जाप पंग धरि आओगे ॥ राम सो कहत पदमाकर पुकारि तुम, मेरे महा पापन को पार हूँ न पाओगे । झूठो ही कलक सुनि सीता ऐसी सती तजी, (नाथ | ) हो तो साँचो हूँ कलकी ताहि कैसे अपनाओगे" ॥