अनर्थ । अनर्थ ।। अनर्थ ॥
सबसे अधिक अनर्थ
"दीन जानि सब दीन्ह एक दुरायो दुसह दुख । सो दुख हम कह दीन्ह कछुह न राख्यो बीरवर ॥"
आज हमको इसके प्रकाशित करने मे अत्यन्त शोक होता है और फलेजा मुंह को पाता है कि हम लोगो के प्रेमास्पद भारत के सच्चे हिनषी, और पार्यों के शुभचिन्तक श्रीमान् भारतभूषण भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्रजी कल मडगल की अमडगल रात्रि मे ६ बज के ४५ मिनट पर इस अनित्य ससार से विरक्त हो और हम लोगो को छोड कर परम पद को प्राप्त हुए ० उनकी इस अकाल मृत्यु से जो असीम दुख हुआ उसे हम किसी भाति से प्रकट नहीं कर सकते क्योकि यह वह दुसह दुख है कि जिनके वणन करने से हमारी छाती तो फटती ही है वरन्च लेखनी का हृदय भी विदीण होता जाता है और वह सहस्रधारा से अश्रुपात करती है ०
हा। जिस प्राण प्यारे हरिश्चन्द्र के साथ सदा विहार करते थे और जिसके चन्द्रमुख दशन मात्र से हृदय कुमुद विकशित होता था उसे आज हम लोग देखने के लिये भी तरसते हैं • जिसके भरोसे पर हम लोग निश्चिन्त बैठे रहते थे और पूरा विश्वास रखते थे वही आज हमको धोखा दे गया ० हा | जिस हरिश्चन्द्र को हम अपना समझते थे उसको हमारी सुध तक न रही ० हरिश्चन्द्र तुम तो बडे कोमल स्वभाव के थे परन्तु इस समय तुम इतने कठोर क्यो हो गये ? तुमको तो राह चलते भी किसी का रोना अच्छा नहीं लगता था सो अब सारे भारतवर्ष का रोना कैसे सह सकोगे • प्यारे । कहो तो सही, दया जो सदा छाया सी तुम्हारे साथ रही सो इस समय कहाँ गई ० प्रेम जो तुम्हारा एक मात्र व्रत था उसे इस वेला कहाँ रख छोडा है जो तुम्हारे सच्चे प्रेमी बिलला रहे है हे देशाभिमानी हरिश्चन्द्र | तुम्हारा देशाभिमान किधर गया जो तुम अपने देश की पूरी उन्नति किये विना इसे अनाथ छोड कर चल दिये ० तुम्हारा हिन्दी का आग्रह क्या हुआ, अभी तो वह दिन भी नहीं आये थे जो हिन्दी का भली भॉति प्रचार हो गया