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(१४) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्न करने से काम न बनेगा वह सहज मनुष्य नहीं है सब भेद नवाब से खोल देगा तो कोई काम भी न होगा।' बस इसी पर अग्रेज लोग अमीचन्द से चिढ गए, और । उनके सारे उपकारो को भुलाकर जाली सन्धि पत्र बनाया और अमीचन्द को धोखा दिया। पलासी को लडाई, अग्नेजो की विजय और सेठ अमीचन्द को प्रतारित करने का इतिवृत्त इतिहासो में प्रसिद्ध ही है। अपने को निर्दोष सिद्ध करने के लिये अग्रेज ऐतिहासिको ने सारा दोष अमीचन्द पर थोपकर यथेष्ट गालि प्रदान की उदारता दिखलाई है परन्तु विचार कर देखने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि ये प्रादि से अन्त तक अग्रेजो के सहायक रहे और उनके हाथ से अनेक अन्याय बर्ताव होने पर भी उनके हित साधन से मुंह न मोडा और अग्नेज लोग केवल । सन्देह कर करके सदा इनका अनिष्ट करते रहे, परन्तु यह सन्देह केवल अपने को दोष मुक्त करने के लिये था वास्तव में इनके भरोसे और विश्वास पर ही इनका सब काम चलता था। कसम खाकर मीर जाफर ने सन्धि पत्र पर हस्ताक्षर किया परन्तु अग्रेजो को विश्वास नहीं हुआ, जब जगतसेठ और सेठ अमीचन्द ने जमानत किया तब अग्रेजो को विश्वास हुमा । बाबू फतह चन्द्र सेठ श्रमीचन्द के पुत्र सुयोग्य सेठ फतहचन्द इस घटना से अत्यन्त उदास होकर काशी चले पाए। इनका विवाह काशी के परम प्रसिद्ध नगरसेठ गोकुलचन्द साहू की कन्या से हुआ । सेठ गोकुलचन्द के पूर्वजो ने काशी के वर्तमान राज्यवश को काशी का राज्य, भीर रुस्तमनली को पदच्युत कराके, अवध के नव्वाब से प्राप्त कराने में बहुत कुछ उद्योग किया था और तभी से वह उस राज्य के महाजन नियत हुए, तथा प्रतिष्ठापूर्वक "नौपति" की पदवी प्राप्त हुई। जिन नौ महाजनो ने उस समय काशीराज के मूल पुरुष राजा मनसाराम को राज्य दिलाने मे सर्व प्रकार सहायता दी थी, उन्हें नौपति की उपाधि दी गई थी। यह "नौपति" पदवी अब तक प्रसिद्ध है, परन्तु अब उन नवो वश में केवल १ 'जामिन उसके वही दोनो महाजनान मजकूर हुए'-मुताखरीन का उर्दू अनुवाद ।