६४ भारतेंदु हरिश्चन्द्र पर मार कर फोड़ डालते थे। तात्पर्य यह कि इस प्रकार के इन्होंने अमानुषिक शक्ति के कई अद्भुत दृश्य दिखलाए थे। यह जोधपुर के निवासी थे तथा कविता भी करते थे। सुप्रसिद्ध बिहारीलाल की सतसई हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है। इस सतसई का चरखारी निवासी कवि परमानन्द जी ने संस्कृत में छन्द बद्ध अनुवाद कर उसका 'शृगारसप्त- शतिका' नाम रखा था। कन्या-विवाह के कारण अथवा और किसी आवश्यकता पड़ने पर धन के लिये यह इस अनुवाद को लेकर पर्यटन को निकले और घूमते-फिरते काशी आए । ये बहुत जगह घूमे पर कहीं से इन्हें वांछित धन की प्राप्ति न हो सकी थी। भारतेन्दुजी ने यह सप्तशतिका देख कर बड़ी प्रसन्नता प्रगट की और एक सभा करके उक्त पंडितजी को स्वयं पाँच सौ रुपये, बनारसी दुपट्टा आदि वस्त्र दकर विदा दी थी। उसी सभा में उपस्थित अन्य सजनों ने मिलकर दो सौ रुपये और दिये, जिससे प्रति दोहे पीछे परमानंद जी को एक एक रुपये पड़ गये। यह पुरस्कार कम न था। मूल के लिये जयपुराधीश महाराजाधिराज जयसिंहने जब एक एक मुहर दी तब अनुवाद लिये एक गृह निर्वासित ऋण-ग्रस्त प्रजा के लिये एक एक रुपये देने बहुत थे। कोरा अपव्यय था। सुधाकर जी को एक दोहे पर सौ रुपये दे डालना तो बाप दादों के बनाए घर को जड़मूल सहित फूंक डालना ही कहा जायगा। ये रुपये भी किसी आवश्यक कार्य के लिये रखे हुए थे उसका ध्यान न कर एक साहित्य-सेवी का सन्मान करते हुए उन्होंने यह रकम उन्हें अर्पण कर दी। इस दान के विषय में साहित्याचार्य पं० अम्बिकादत्त व्यास ने स्वरचित विहारी-विहार में पंडित परमानद जो को शृमार
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