पूर्वज-गण सप्तशतिका का उल्लेख करते हुए इस प्रकार लिखा है-'मूझे ठीक स्मरण है कि दशाश्वमेध की संगत में महंत बाबा सुमेर- सिंह साहबजादा साहब के यहाँ पिता जी के साथ में बैठा था । साहित्य को कोई बात महंतजी ने पूछी थी, मेरे पिता जी कह रहे थे। इसी समय अकस्मात् बाबू हरिश्चन्द्र जी और उनके साथ पंडित परमानन्द आए । पंडित परमानन्द जी साँवले से थे। लगभग ३० वर्ष की वय थी, मैली सी धोती पहिने, मैली छींट की दोहरी मिरजई पहने, बनाती कन्टोप अोढ़े, एक सड़ी सी दोहर शरीर पर डाले थे। बाबू साहिब ने पिता जी से उनके गुण कहा। सुन के सब उनकी ओर देखने लगे। उन्होंने अपना हाथ की लिखी हुई पोथी बगल से निकाली और थोड़ी बाँच कर अपनी दशा कह सुनाई कि 'मुझे (कन्या विवाह अथवा और कोई कारण कहा ठीक स्मरण नहीं) इस समय कुछ द्रव्य की आवश्यकता है इसीलिये चिर परिश्रम में यह ग्रंथ बनाया कि किली से व्यर्थ भिक्षा न माँगनी पड़े। अब मैं इस ग्रंथ को लिए कितने ही राजा बाबुओं के यहाँ घूम चुका । कोई तो कविता के विषय में महादेव के वाहन मिले, कहीं सभा-पंडित घुसने नहीं देते, कहीं संस्कृत के नाम से चिढ़, कोई रीझै तौ भी पचा गए, कोई कोई वाह वाह की भरती कर रह गए, और कोई, अति- प्रसन्नो दमड़ी ददात । अब बाबू साहिब का आश्रय लिया है।' थोड़े ही दिनों के अनन्तर बाबू साहिब ने ५००) मुद्रा और उनके मित्र रघुनाथ पंडित प्रभृति ने २००) यो दोहा पीछे १) इनकी विदाई की । जो अनेक चँवर छत्रधारी राजा बाबू न कर सके, सो वैश्य बाबू हरिश्चन्द्र ने किया । हा ! अब यह आसरा भी कविजन का टूट गया। सं० १९२८ में अप्ययाचार्य प्रतिवादी-भयंकर कवि-कुल- कंठीरव शतावधानी नामक एक बड़े मेधावी कवि काशी आये
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