पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१९४

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दान की स्फुट वार्ता १८५ एक बार भारतेन्दु जी पटने गए और जब वे बा० रामदीन सिंह के गृह पर पहुँचे उस समय कुछ रात्रि बाकी थी। नौकर ने फाटक खुलवाने के लिए बहुत आवाज़ दी पर पहरे के सिपाही ने नहीं खोला। इस पर भारतेन्दु जी ने फाटक के बाहर के कोने में, उस स्थान पर जहाँ दो एक सिपाहियों के बैठने उठने की जगह बनी हुई थी, बिछौना बिछवा कर सो रहे । सुबह होने पर जब बा० रामदीन सिंह को खबर मिली तब वे दौड़े हुये आए और नौकरों पर बिगड़ने लगे। भारतेन्दु जी ने उनसे कहा कि इन नौकरों ने हमें न पहिचानने के कारण फाटक न खोल कर अपना धर्म ही निबाहा है, इसलिए इन पर खफा होना उचित नहीं है और हमें भी शरीर को आराम देना था इस लिए यहीं सो रहे। बा० राधाकृष्ण दास जी के विवाहोपलक्ष में तिलक की महफिल जमी हुई थी और महन्त वाली जानकी की लड़की मलका वजीर की एक गजल गा रही थी, जिसका पहिला मिसरा था 'वस्ल में रफ्तारे माशूकाना दिखलाती है नींद' । बा० पुरुषो- त्तम दास जी भारतेन्दु जी के पास ही बैठे हुए थे, और गाने तथा गजल दोनों की खूब प्रशंसा कर रहे थे। भारतेन्दु जी ने ग़ज़ल समाप्त होने पर इनसे घूमकर पूछा कि आप अर्थ भी अच्छी तरह समझते हैं या योंही वाह वाह करते हैं । इसके अनंतर उन्होंने 'ग़ालिब' का एक शेर पड़ कर उसका आशय पूछा । शेर यों है:- मिलना तुम्हारा गर नहीं आसाँ तो सहल है । दुश्वार तो यही है कि दुश्वार भी नहीं ।। इस पर जब उक्त सज्जन ने कहा कि शायद इसका भाव यह है कि नामुमकिन है, तब वह इन पर बहुत प्रसन्न हुए।