पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२७९

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२७२ [ भारतेन्दु हरिश्चन्द्रः में नाटक के लेखों के साथ विविध दृश्यों का दिखलाना भी आवश्यक समझा गया है । इन अंकों और गौंकों की कल्पना यों होनी चाहिए, यथा पाँच वर्ष के आख्यान का एक नाटक है तो उसमें वर्ष वर्ष के इतिहास के एक-एक अंक और उस अंक के अंतःपाती विशेष-विशेष समयों के वर्णन का एक गीक । अथवा पाँच मुख्य घटना-विशिष्ट कोई नाटक है तो प्रत्येक घटना के सम्पूर्ण वर्णन का एक एक अंक और भिन्न भिन्न स्थानों में विशेष घटनांतःपाती छोटी-छोटी घटनाओं के वर्णन में एक-एक गभीक ।' सत्यहरिश्चन्द्र नाटक पौराणिक आख्यान तथा चंडकौशिकः नाटक के आधार पर लिखा गया है । भारतेन्दु जी ने इसका कथावस्तु बड़ी कुशलता से सुगठित किया है । बालकों को उपदेश देने के जिस उद्देश्य से यह लिखा गया है, उसे यह पूर्णरूप से चरितार्थ कर रहा है। इसमें वीर रस के सत्य, ज्ञान तथा कर्म तीनों भेद का परिपाक हुआ है और करुण, वीभत्स रसों का भी समावेश हुआ है। इसमें चार ही अंक हैं और अंतिम अंक को चंड कौशिक के समान व्यर्थ ही दो अंकों में विभक्त कर नाटक में कम से कम पाँच अंक होने के नियम का दोषमार्जन नहीं किया गया है। यह कवि-स्वातंत्र्य है। इसमें अर्थ प्रकृति तथा अवस्थाएँ सभी उपयुक्त स्थानों पर मौजूद हैं और यह नाटक सभी लक्षणों से युक्त है। इनके सिवा चंद्रावली नाटिका, भारतदुर्दशा, नीलदेवी, प्रेम- योगिनी आदि कई छोटे-बड़े रूपक लिखे गए, जिनकी संक्षिप्त आलो-. चना अलग की जा चुकी है। इन सब विवेचनों से यह स्पष्ट है कि भारतेन्दु जी को संस्कृत नाट्यशास्त्र का अच्छा ज्ञान था और यूरोपीय नाट्यकला का भी उन्होंने मनन किया था । पारसी थिएट्रिकल साहित्य के विषय में भारतेन्दु जी की अच्छी सम्मति नहीं थी । वे .