पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२७८

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. नाट्यशास्त्र ज्ञान] २७१ वह अग्रसर होता रहता है। इसके अनंतर यह बाधा अपना पूर्ण रूप प्रगट करते हुए भी असफल होने का आभास देती है। इसके बाद वह क्रमशः बिलकुल दब जाती है, तब अंत युगल- मिलन में हो जाता है। विद्यासुन्दर नाटक में ठीक इसी प्रकार की एक प्रेमलीला का वर्णन है। इसका मूल आधार तो केवल इतना ही है कि एक राजकुमारी विद्या का उसके सहपाठी सुन्दर से प्रेम हो गया था, जिसका अंत वियोग में हुआ था । बँगला के विद्यासुन्दर नाटक देखने का मुझे सौभाग्य नहीं मिला है, इसलिए इस विषय में कुछ नहीं लिखा जा सकता कि भारतेन्दु जी ने उसमें क्या घटी- बढ़ती की है। यह नाटक तीन अंकों में विभाजित है तथा पहिला चार और दूसरा तथा तीसरा तीन तीन गभौंकों में बँटा है। इस "गभीक शब्द का बड़ा दुरुपयोग किया गया है । यह शब्द अँगरेजी के 'सीन' शब्द का समानार्थी माना गया है, यद्यपि संस्कृत नाट्यशास्त्र के अनुसार किसी अंक के मध्य में आने वाले अंक को गीक कहा है और यह आदेश किया है कि रस, वस्तु और नायक का उत्कर्ष बढ़ाने के लिए इसका प्रयोग होना चाहिए। बँगला के आधुनिक नाटकों में गर्भाङ्क सीन के अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है और जान पड़ता है कि भारतेन्दु जी ने भी इसी अर्थ में इसका प्रयोग किया है। हमारी समझ में 'दृश्य' शब्द से इसका काम भली भाँति चल सकता था। एक शास्त्रीय शब्द का दुरुप- योग वांछनीय नहीं है। इससे व्यर्थ भ्रम उत्पन्न होता है।" यह गर्भाङ्क उद्धरण-लेखक को हौआ सा मालूम हुआ है। भारतेन्दु जी 'नाटक' में लिखते हैं कि प्राचीन की अपेक्षा नवीन की परम मुख्यता बारंबार दृश्यों के बदलने में है और इसी हेतु एक-एक अंक में अनेक-अनेक गौंकों की कल्पना की जाती है क्योंकि इस समय