पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२८७

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२८० [भारतेन्दु हरिश्चन्द्र दुष्टों के संहार कराने में यह सदा दत्तचित्त रहते थे। संस्कृत साहित्य में, माघ आदि काव्यों में, ये ऋषिवत् ही चित्रित हैं; यद्यपि उनमें भी वे दुष्टों के नाश कराने ही के कार्य में लगे हुए ' वर्णित हैं । हिन्दी ही में, जहाँ तक मैं समझता हू, झगड़ालुओं के लिये नारद नाम रूढ़ि हुआ है। इस विचार से नारद जी का चित्रण ऋषिवत् करना ही उत्तम हुआ है, और उनसे इन्द्र को जो उपदेश दिलाया गया है वह बालकों के लिये उपयोगी है। नारद जी सर्वदा हरिनाम जपते तथा भ्रमण करते हुए सभी स्थानों में जाया-आया करते थे पर वशिष्ठ जी से ऋषि कोसिवा किसी खास काम के इन्द्र के पास जाना तथा हरिश्चन्द्र की प्रशंसा और पक्ष- पात करना उचित न होता। इसके बाद विश्वामित्र के आने पर दोनों में साक्षात कराना भी ठीक न होता क्योंकि दोनों 'चांडाल- याजिन्' के नाते उस समय परस्पर मित्र भाव नहीं रखते थे। अस्तु, नाटककार ने जो कुछ सोच कर ऐसा किया हो, वह उचित ही किया है। चन्द्रावली नाटिका की नायिका श्रीमती चन्द्रावली जी निरीह प्रेम की पात्री हैं। इनका प्रेम विलक्षण है, जो अकथनीय तथा रणीय है । जहाँ प्रेम होता है वहाँ प्रेमपात्र में माहात्म्य का ज्ञान नहीं रह जाता और जहाँ माहात्म्य-ज्ञान होता है वहाँ प्रेम प्रस्फुटित नहीं हो सकता। पर यह श्रीकृष्ण भगवान के माहात्म्य को अच्छी प्रकार जानकर भी उनमें पूर्ण आसक्ति रखती थीं। इनके प्रेम की निस्पृहता बहुत बढ़ी हुई थी। यह प्रायः ऐना देखा करती थीं, जिसं पर इनकी सखी ललिता ने उक्ति की 'तेरे नैन मूरति पियारे की बसत ताहि आरसी में रैन दिन देखिबो करत है।' इस पर चंद्रावली जी उत्तर देती हैं कि 'नहीं सखी ! मैं जब आरसी में अपना मुँह देखती और अपना रंग पीला पाती थी तब