पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२९४

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२८७ - सम सोहत । प्राकृतिक वर्णन की कमी] लोल लहर लहि पवन, एक मैं इक इमि श्रावत । जिमि नर-गन मन बिबिध, मनोरथ करत मिटावत ॥ कासी कह प्रिय जानि, ललकि भेट्यो जग धाई । सपनेहू नहिं तजी, रही अंकम लपटाई ।। कहूँ बंधे नव घाट उच्च, गिरिवर कहुँ छतरी, कहुँ मढ़ी, बढ़ी मन मोहत जोहत ॥ मधुरी नौबत बजत, कहूँ नारी नर गावत । वेद पढ़त कहुँ द्विज, कहुँ जोगी ध्यान लगावत ॥ कहुँ सुन्दरी नहात बारि कर जुगल उछारत । जुग अंबुज मिलि मुक्त गुच्छ मनु सुच्छ निकारत ।। दीठि जहीं जहँ जात रहत तितही ठहराई , गंगा छबि 'हरिचन्द' कछू बरनी नहि जाई ॥ , चंद्रावली नाटिका में भी ललिता सखी द्वारा यमुना जी का चर्णन नौ छप्पयों में कराया गया है, पर उनमें उपमा तथा उत्प्रेक्षा अलंकारों ही का आधिक्य है । वास्तव में भारतेन्दु जी यमुनाजी की प्राकृतिक शोभा ही का वर्णन नहीं कर रहे थे, प्रत्युत् विरहिणी नायिका की एक सखी. पर इस शोभा का क्या असर पड़ रहा था, वही दिखला रहे थे। कहूँ तीर पर अमल कमल सोभित बहु भाँतिन । कहुँ सैवालन मध्य कुमुदिनी लगि रही पाँतिन ।। मनु हग धारि अनेक जमुन निरखत प्रज सोभा । कै उमगे पिय-प्रिया प्रेम के अनगिन गोमा । कै करिकै कर बहु पीय को टेरत निज ढिग सोहई। कै पूजन को उपचार लै चलति मिलन मन मोहई।