पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३०६

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[भारतेन्दु हरिश्चन्द्र उस दया पर पूर्ण भरोसा रखना चाहिए। इस प्रकार पूर्णविश्वास हो जाने पर वह ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि हे करुणा वरुणा- लय ! आप पुताली या सुरमा होकर आँखों में, प्राण और कामना होकर हृदय में, शक्ति होकर सारे शरीर में तथा शब्द होकर कान में निवास करिए, जिसमें हम आपमय हो जायँ और आप में हम में द्वैत भाव न रह जाय । अहमत्व ही माया है, खुदी मिटते ही खुदा में जीव मिल जाता है । इसलिए- नैनन मैं निवसौ पुतरी ह , हिय मैं बसौ है प्रान । अंग अंग संचरहु सक्ति है, एहो मीत सुजान ।। मन में वृत्ति वासना है कै प्यारे, करौ निवास । ससि सूरज है रैन दिना तुम हिय नभ करहु प्रकास ॥ बसन होह लिपटौ प्रति अंगन भूषन है तन बाँधो । सोधो है मिलि जाउ रोम प्रति अहो प्रानपति माधो॥ सुहाग सेन्दुर सिर बिलसो अधर राग है सोहौ । फूल माल ह कंठ लगौ मम निज सुवास मन मोहौ ॥ नभ है पूरौ मम आँगन श्री पवन होइ तन लागौ। सुगन्ध मो घरहि बसावहु रस है के मन पागौ ॥ श्रवनन पूरौ होइ मधुर सुर अंजन है दोउ नैन । होइ कामना जागहु हिय में करहु नींद बनि सैन ।। रहौ ज्ञान में तुमहीं प्यारे तुम-मय तन मम होय । 'हरीचन्द' यह भाव रहै नहिं प्यारे हम तुम दोय ।। अंत में कवि कहता है कि- व्रज के लता पता मोहि कीजै । गोपी पद पंकज पावन की रज जामैं सिर भीजै ।। आवत जात कुंज की गलियन रूप-सुधा निल पीजै । श्रीराधे राधे मुख यह बर 'हरीचन्द' को दीजै ॥