पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३३८

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नवीन रस] ३३३. ताही कर सो कृष्णा की बेनी बंधवाई। भीमसेन ही सो बदलो लैहै चुकलाई ॥ इसमें दुशासन आलंबन है और उसे मार कर उसका रक्त- पान तथा उस रक्त से द्रौपदी के वेणी बँधवाने के लिए घबड़ाहट उद्दीपन है । क्रोध से हाथ पैर चलाते हुए कहना अनुभाव है और इधर-उधर घूरना, अमर्ष आदि संचारी भाव हैं। भयानक रस का स्थायी भाव भय है। भय का कारण आलं- बन, भयोत्पादक चेष्टाएँ उद्दीपन और विवर्णता, मूळ, कंप आदि अनुभाव होते हैं । त्रास, आवेग, शंका आदि व्यभिचारी भाव हैं। देखिए-- ररुपा चहुँ दिसि ररत डरत सुनि के नर-नारी। फटफटाइ दोउ पंख उलूकहु रटत पुकारी।। अंधकार बस गिरत काक अरू चील करत रख । गिद्ध-गरुड़-हडगिल्ल भजत लखि निकट भयद रव ।। रोत सियार, गरजत नदी, स्वान मँकि डरपावई । सँग दादुर झींगुर रुदन-धुनि, मिलि स्वर तुमुल मचावई ।। इस अवतरण में भयोत्पादक वस्तु अनेक हैं और ररना, फट फटाना आदि कई उद्दीप्ति-कारक कार्य हो रहे हैं। हृदय में कंप उठना, विवर्ण होना अनुभाव हैं। इन सब के होने से भयानक रस पूर्ण रूप से इस पद में व्याप्त है। वीभत्स रस का स्थायी भाव जुगुप्सा, घृणोत्पादक वस्तु आलं. बन, घृणित वस्तु के अत्यधिक घृणित होने वाले कार्य उद्दीपन, घृणा से मुख फेर कर थूकना आदि अनुभाव और आवेग, मोह आदि संचारी हैं। एक उदाहरण दिया जाता है। ,