पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३६५

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३५८ [ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र मोहित न हो जाय और उसे भूल जाय । पुरुषों का रूपलोभ प्रसिद्ध ही है । नायिका का ऐसा दृढ़ विश्वास है कि उसके पति का या प्रेमी का रूप उससे कहीं बढ़ा चढ़ा हुआ है और वह उसे अपने रूप को देख कर भूल सकता है। यह उसकी अपने प्रिय पर की दृढ़तम भासक्ति है। यह स्त्रीसुलभ स्वभाव है कि वे किसी दूसरे को अपने से बढ़ कर सुन्दर देखना नहीं चाहती पर यहाँ उसे प्रिय के अपने से बहुत अधिक सुन्दर होने का विश्वास है। कहा है देखन देहुँ न पारसी सुन्दर नन्दकुमार । कहुँ मोहित है रूप निज मति मोहि देहु विसार ।। साथ ही वह पति के उस रूप सुधा को अनेक उपाय से सुर- क्षित रखना चाहती है जिसमें उसका कोई अन्य स्वाद न ले सके। उसे वह आँखों में और हृदय में बन्द रखना चाहती है। ऐसा प्रेमोन्माद है कि सबतों की कौन कहे टँगे हुए चित्रों से इठलाती है कि वे भी उसे न देख लें। इस प्रकार सबसे लाग डॉट करती हुई वह अनुरागिणी प्रिय के रूप-सुधा का सर्वग्रास कर जाना चाहती है, यहाँ तक कि बेचारे प्रेमी को अपने मुख तक देखने के लाले पड़ गए हैं। वह प्रिय और आँखों के बीच आईने के आजाने का वियोग तक नहीं पह सकती। राखत नैनन में हिय मैं भरि दूर भये छिन होत अचेत है। सौतिन की कहे कौन कथा तसबीर हू सों सतगति सहेत है। लाग भरी अनुराग भरी 'हरिचन्द' सबै रस श्रापुहि लेत है। रूप-सुधा इकली ही पियै पियहू को न पारसी देखन देत है। दो सखियाँ आपस में तक बितर्क कर रही है । एक का कृष्ण प्रति प्रेम उसी समय जब दूसरे पर प्रगट हुआ तब वह इसके नित्य बरावर आरसी देखते रहने पर अपना विचार यों कहती है- .