पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३९९

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परिशिष्ट (आ) भारतेन्दु के विषय में कुछ सम्मतियाँ (श्रीयुत २० बद्रीनारायण चौधुरी 'प्रेमधन' के तृतीय साहित्य-सम्मेलन के भाषण से उद्धृत एक दिन मैं अपने अभिन्न-हृदय माननीय मित्र भारतेन्दु से कह उठा कि मैंने सब की लिखी हिन्दी पढ़ी, परन्तु जो स्वाद मुझे राजा साहिब की लिखावट में मिलता है. दूसरों की में कदापि नहीं वह मुसकुरा कर बोले, कि क्या कहें, वैसी लच्छे- दार इबारत कोई लिखी नहीं सकता, पसन्द कै आवै ? सच. मुच उनके कलम में जादू का असर है ।' अवश्य ही वह सरल उर्दू शब्दों के मेल को बुग नहीं समझते थे और अप्रचलित संस्कृत शब्दों के भरने के विरोधी थे। वह केवल ठेठ बोलचाल की हिन्दी के पक्षपाती थे । एक दिन भारतेन्दु के साथ मैं उनके घर पर गया, तो और बातों के साथ हिन्दी की लिखावट की बात चली, तो कहा कि 'आप लोग क्या पाणिनि का जमाना लाना चाहते हैं ? इबारत वही अच्छी कही जायगो कि जो प्राम फहम और खास पसन्द हो।' बाबू साहब ने कहा कि 'हुजूर क्या किया जाय, अरबी फारसी के अलफाज के मेल से तो उर्दू हिन्दी में कुछ भेद नहीं रह जाता।' कहा कि 'भेद तो दर अस्त हई नहीं है, लोग दोनों तरफ से खींच तान कर के भेद बढ़ा रहे हैं।' पिछले दिनों राजा साहेव अपनी भाषा में उर्दू पन अधिक ला चले थे, जिसके कारण शायद उनके अफसर डाइरेक्टर