पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/४०३

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1 - परिशिष्ट-आ] ३६७. जो हो, ये दोनों काशीवासी गुरु और चेले हमारे समान सम्मान के भाजन हैं, क्योंकि हमारी वर्तमान भाषा के यहां दो प्रधान संस्कारक वा परिपोष हैं। इस देश रूपा खेत में जो हमारी भाषा का बीज छिप रहा था, उसे लल्लूलाले रूपी वर्षा ऋतु ने अंकुरित किया, तो शिवप्रसाद शारद ने उसे बेल बूटे का आकार दिया पौर हरिश्चन्द्र बसन्त ने उसमें फूल फल दिखलाये अथं जा. यों कहें, कि लल्लूलाल उसके जन्मदाता तो राजा साहिब उसके पालनकर्ता हैं, क्योंकि उन्हीं ने उस भाषा को ऐसा रूप दिया कि जिसस वह उदू से टक्कर लेने में समर्थ हुई, जिसे पढ़कर लोग लेख का आनन्द पाने लगे और यह समझ सके कि उर्दू को छोड़ हिन्दी में भी लेख लालित्य दिखलाया जा सकता बाबू साहिब मानों उसके शिक्षक थे कि, जो उसे अनेक गुणों से युक्त कर लोगों को दिखला सके, अथवा राजा साहिब की जगाई भूख को वह भौति भाँति की सामग्री देकर वाचक वृन्द को तृप्त कर सके। काशी हमारा सदा का विद्यापीठ है। वहाँ से यदि संस्कृत की धारा बहती थी, तो उसकी बच्ची हमारी भाषा की सोता का भी वहाँ से निकलना परम स्वाभाविक है । भारतेन्दु के अस्त होने पर जो वहाँ काशी नागरी प्रचारिणी सभा खुली, मानों वह भाज भी उनका प्रतिनिधि बनी बहुत कुछ उनके किये की लाज रख रही है। उसने कई काम ऐसे किये ।क, जो हमारी भाषा के हितैषियों क धैर्य के हेतु है। विशेषत: पृथ्वीराज रासो का प्रकाशित करना, हिन्दी कोष का निर्माण, प्राचीन भाषा ग्रंथों की खोज और उनमें कुछ का उद्धार करना। सम्मेलन-स्थापन का सुयश भी उस को मिला और यह भी उसके बड़े कामों में है। आज ईश्वर की कृपा से यह जिसका ततीय अधिवेशन है, मान! -