पृष्ठ:भारत के प्राचीन राजवंश.pdf/१८८

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मालवेंकै परमार । अर्थात् समुद्रपोपका शिष्य सूरप्रभसूरि अन्ती नगर भरमें प्रसिद्ध विद्वान था । जैन अमयदेवसुरके जयन्तकाव्यङ्ग प्रशस्तमें नरबर्माका जैन वल्लभसुरके चरणों पर सिर झुकाना लिखा हैं । वि० सं० १९७८ में यह काव्य बना था। इस काव्यमें वल्लभरिका रामय वि० ० ११५ है'। यद्यपि इस काव्यमें लिखा है कि नरव जैनाचार्योकी भक्त था, तथापि वह पक्का झै था, जैसा किं धारा और उनके लेहै विदित होता है । | चेदिराजकी कन्या मोमला देवी नरबर्माका वियाह हुआ था । उसने पशवर्मा नामका एक पुत्र उत्पन्न हुई। | बनदिकीमुदीमें लिखा है कि नरबमझो काष्ठके पिंजड़ेमें कैद करके उसकी धारा नगरी जयासे हने छीन ली। परन्तु यह घटना इसके पुन समयकी है । १२ वर्ष तक लड़ कर पशोवर्माको उसने कैद किया था। | नरवके समय दो लेखम संवत् दिया हुआ है। उनमें से पहला लेस वि० सं० ११६१ (६० स० ११०४) का है, जो नागपुर में मिला थी। दूसरी लेख वि० सं० ११६४ (६० स० ११०७) फा है । यह मधुकरगडमें मिला थ । चाकके ज्ञान देखा पर संवत् नहीं है । प्रथम भेजशाला स्तम्भवाला, दूसर। उन' गाँवझी दीवारबाड़ा और तीसरा महाकाल मन्दिावाला लेखण्ड । | १४-पशोवर्मदेव । यइ नरबमदेवका पुत्र ही और उसके पीछे मद्दी पर बैठा ! परमाका वह ऐश्वर्य, जो उदयादित्यने फिरते प्राप्त कर लिया था, इसरानाके Jitstory of Jetesen in Gujrat, pt I, AEIX.39 (1) Tra. A 4.5, Pot. T, १८, OBT