पृष्ठ:भारत में अंगरेज़ी राज (दूसरी जिल्द).djvu/११४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
५२७
करनाटक की नवाबी का अन्त

करनाटक की मवावी का अन्त ५२७ सन् १७५२ में शुरू की, जबकि टीपू विवश होकर अपना प्राधा राज दे चुका था, जबकि उसे तीन करोष तीस लाख रुपए युद्ध दबा देना पड़ गया था और अपने दो बेटों को बतौर बन्धकों के मद्रास भेजने की ज़िलत सहनी पड़ी थी। और कहा जाता है कि अपने विजयी दोस्तों और मददगारों के विरुद्ध अपने पराजित शत्रु के साथ मिलकर नवाबों ने यह जी तोब साजिश टीपू के उन दो नौकरों की मारफत की जो इन दोनों शहजादों को हमराही में मद्रास भेजे गए थे। "इस तरह की साजिश की कहानी निस्सन्देह अत्यन्त प्रसङ्गत मालूम होती है। फिर भी यदि उसके लिए काफ़ी सुबूत होता तो हमें उस पर विश्वास करना पड़ता । किन्तु कोई भी विश्वास योग्य गवाही पेश नहीं की गई । इतना ही नहीं, बल्कि टीपू सुलतान के दोनों वकीलों ,गुलामभली और अलीरजा ने अपनी मद्रास से लिखी हुई रिपोर्टों में जो श्रीरापट्टन के काग़जों में पाई गई और जाँच कमीशन के सामने अपने बयानों में जितनी बातें कही है वे सब की सब यदि सच मान ली जावें तो भी उनसे किसी तरह की साज़िश साबित नहीं होती । जाँच कमीशन ने वालाजाह और उसके सब से बड़े बेटे के खिलाफ गुप्त साजिशों और दुरमनी के इरादों के अनेक सुबूत जमा किए ; इन सब सुबूनों को यदि सच भी मान लिया जाय तो भी वास्तव में वे इतने तुच्छ है कि यदि जॉर्ड वेल्सली के दिल में करनाटक के शासन को हाथ में लेने का कोई न कोई बहाना दूर निकालने की प्रबल इच्छा न होती-और हम लॉर्ड वेल्सली के पहले प्रश्नों से जानते हैं कि उसमें यह प्रबल इच्छा मौजूद थी-सो हमें इस बात पर भार्थ