५६० भारत में अंगरेज़ी राज कुचलने के लिए निज़ाम, करनाटक इत्यादि की सेनाएँ काफ़ी थीं; इसी लिए वेल्सली ने पेशवा दरवार को अन्त समय तक झूठी आशा में लटकाए रक्खा और अन्त में अपनी स्थिति को काफ़ी मज़बूत देख कर पेशवा की सहायता लेने से इनकार कर दिया। दूसरी ओर यदि नाना और पेशवा दरबार की नीयत कुछ और भी रही हो तो दो बातें स्पष्ट हैं । एक यह कि सत्य और न्याय की दृष्टि से बेल्सली की अपेक्षा टीपू और मराठों का पल्ला कहीं भारी था। दूसरी यह कि पेशवा दरवार अपनी नीति के अनुसार कार्य करने में अत्यन्त ढीला रहा । यदि उनका इरादा टीपू की मदद करना था तो केवल वेल्सली के बुलाने के इन्तजार में परशुराम भाऊ की सेना को पूना में रोके रखना एक घातक भूल थी। किन्तु अभी तक न श्रीरङ्गपट्टन का पतन हुआ था और न टीपू अंगरेजो के काबू में आया था। अभी तक पेशवा दरबार को परशुराम भाऊ की सेना से अंगरेजों को नुकसान मूठा लोभ माम पहुँच जाने की सम्भावना थी। इसलिए ३ अप्रैल ही के पत्र में वेल्सली ने एक और चाल चली। उसने पामर को लिखा- ____ xxx मैं इसमें न चूकंगा कि टीपू सुलतान से जो कुछ इलाके लिए जायेंगे उनमें कम्पनी के अन्य मददगारों के साथ साथ पेशवा को भी बराबर का हिस्सा दिया जायगा । मैं आपको अधिकार देता हूं कि भाप अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में पेशवा और नाना दोनों को इस बात की सूचना दे देंxxx मुझे विश्वास है कि इससे कम से कम अपने दोनों मित्रों
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