पृष्ठ:भारत में अंगरेज़ी राज (दूसरी जिल्द).djvu/३७

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टीपू सुल्तान

टीपू सुलतान ४६५ कि दोनों सेनापति इस सेना को लेकर बार बार अंगरेजी सेना के दाएँ पाएँ चक्कर लगाते रहे, बार बार सेना के बहादुर सवार जो टीपू के वफादार थे शत्रु पर हमला करने की इजाजत मांगते थे और बार बार उनके सेनापति उन्हें इजाज़त देने से इनकार करते थे; सिपाही दुख और निराशा से हाथ मलते रह जाते थे, यहाँ तक कि बम्बई की अंगरेज़ी सेना भी हैरिस की मदद के लिए आ पहुँची। अन्त में घमासान संग्राम हुआ । इस संग्राम में महताब बाग का मोरचा श्रीरंगपट्टन के किले की कुजी था। सम्वद प्रकार दीप का एक विश्वस्त अनुचर सय्यद गफ्फार, की वफादारी जिसका ज़िक दूसरे मैसूर युद्ध के बयान में श्रा चुका है, महताब बाग का संरक्षक था । सय्यद गफ्फार देर तक वीरता के साथ शत्रु के हमलों से महताब बाग की रक्षा करता रहा । दुश्मन ने देख लिया कि सय्यद गफ्फार के रहते महताब बाग़ को जीत सकना असम्भव है। सय्यद गफ्फार को धन का लोभ दिया गया । उस पर इसका कोई असर न हुआ। अन्त में गुप्त सलाह होकर टीपू के आस पास के नमकहरामों ने टोपू को कुछ समझा बुझाकर सय्यद ग़फ्फार को महताब बाग से हटवाकर किले के अन्दर बुलवा लिया। जिस मनुष्य ने सय्यद गफ्फार की जगह ली वह अंगरेज़ों का धनक्रीत था। सय्यद गफ्फार के जाते ही उसने महताब बाग अंगरेज़ी सेना के हाथों में दे दिया और इस प्रकार श्रीरंगपट्टन के किले का दरवाज़ाशत्रु के लिए खोल दिया।