४७० भारत में अगरेजी राज छलनी होकर गिर पड़ा। टीपू की पगड़ी जमीन पर जा गिरी। शत्रु अधिक निकट आ पहुँचे । प्यादा था और नंगे सर टीपू ने अब बन्दूक फेक कर दाहिने हाथ में अपनी तलवार सँभाली । टीपू की छाती से अब दो दो धारे खून की बह रही थी। उसके कुछ वफ़ादार साथियों ने उसकी यह अवस्था देख कर सहारा देकर उसे एक पालकी में बैठा दिया । पालकी एक मेहराब के नीचे रख दी गई। इस हालत में टीपू के एक मुलाजिम ने उसे सलाह दी कि अब आप अपने आपको अंगरेजों के हवाले कर दीजिये और उनको उदारता पर छोड़ दीजिये, किन्तु वीर टीपू ने बड़े तिरस्कार के साथ इस सलाह को अस्वीकार किया। इतने में कुछ अंगरेज सिपाही पालकी के पास तक आ पहुँचे। इनमें से एक ने टीपू को जख्मी देख कर उसकी कमर से जड़ाऊ पेटी उतारना चाहा। टीपू ने अभी तक तलवार हाथ से न छोड़ी थी। उसने इस तलवार से गोरे सिपाही पर वार किया और एक बार में उसका घुटना उड़ा दिया। फ़ौरन एक तीसरी गोली टोपू की दाहिनी कनपटी में श्राकर लगी, जिसने एक क्षण के अन्दर उसके ऐहिक जीवन का अन्त कर दिया। उस दिन रात को जिस समय टीपू का मृत शरीर लाशों के ढेर में से हूंढ़ कर निकाला गया तो उस समय तक तलवार उसके हाथ से न छूटी थी। दाहिने हाथ का पूरा पञ्जा तलवार के कब्जे पर कसा हुअा था। टीपू प्रायः कहा करता था-"दो दिन शेर की तरह जीना ज़्यादा अच्छा है बजाय दो सौ वर्ष मेड़ की तरह जीने के।"