६६६ भारत में अंगरेजी राज न था, सिंहगढ़, पुरन्धर और रायगढ़ तीनों किले कम्पनी के नाम लिख दिए और अपने किलेदारों के नाम आज्ञा पत्र जारी कर दिए। पेशवा बाजीराव के साथ अंगरेज़ों की इससे आगे की काररवाइयों को बयान करने से पहले हम इस स्थान पर त्रयम्बकजी का शेष जीवन वृत्तान्त दो चार शब्दों में दे देना चाहते हैं। या तो त्रयम्बकजी के थाने से भागने का सारा किस्सा ही भूठा था और या वह सन् १८१८ में फिर गिरफ्तार अयम्बक जी का र " कर लिया गया था। इस बार वह बनारस के " निकट चुनार के किले में रक्खा गया। अनेक यूरोपियन यात्रो यहाँ समय समय पर उससे मिलने के लिए पाए । इनमें पादरी ( विशप ) हीवर सन् १८२४ में त्रयम्बकजी से मिला। विशप हीबर ने लिखा है कि- ____ त्रयम्बकजी बड़ी सनती के साथ कैद था। उस पर एक यूरोपियन और एक हिन्दोस्तानी गारद रहती थी, उसे सन्तरियों को आँखों से कभी प्रोझल होने न दिया जाता था। उसके सोने के कमरे में भी तीन खिड़कियाँ थीं, जो बरामदे की तरफ खुलती थीं और जिनमें लोहे के सीनचे लगे हुए थे। इस बरामदे ही में गारद मौजूद रहती थी। x x x" एक दूसरा यात्री मेजर आर्चर, जो १६ फ़रवरी सन् १८२६ को त्रयम्बकजी से मिलने गया, लिखता है कि- "त्रयम्बकजी सन् १८१८ से लगातार कैद है, किन्तु उसके कैद की मियाद उसके महान शत्रु-काल ने करीब करीब नियत कर दी है। उसका इलाज करने वाले वैद्य कहते हैं कि वह चन्द महीने से अधिक नहीं जी
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