लॉर्ड ऐमहर्ट २०४३ तक अंगरेजों का किसी तरह का कोई झगड़ा न था। उस देश के महाराजा ने कम्पनी सरकार को लिखा कि या तो किङ्गबेरिङ्ग और उसके साथियों को बरमा दरवार के हवाले कर दिया जाय, और या बरमा की सेना को कम्पनी के इलार्क में जाकर उन्हें गिरफ्तार करने को इजाजत दो जाय । अंगरेज़ों ने इस पर किङ्गबेरिङ्ग को हवाले करने का झूठा वादा कर लिया। इसके बाद किनबेरिङ्ग प्रायः प्रति वर्ष बग्मी इलाके पर धावे मारता रहा। कई बार बरमा की सेना ने उस पर हमला किया। हर बार हार खाकर किङ्गबेरिङ्ग भाग कर अंगरेज़ी इलाके में चला पाता था। अंगरेज सरकार ने न बरमा की सेना को अपने इलाके में प्रवेश करने दिया और न किङ्गबेरिग को उनके हवाले किया। अन्त में सन् १८१५ में किङ्ग- बेरिङ्ग की मृत्यु हो गई। किन्तु किङ्गबेरिङ्ग की मृत्यु के साथ बरमा की प्रजा की मसोबते खत्म न हुई। उसके स्थान पर अब उसी तरह के दसरे लोग खड़े कर दिए गए और बरमा की प्रजा पर बराबर धावे जारी रहे । बरमा दरबार ने अंगरेजों से प्रार्थना की कि इन डाकुओं को हमारे सुपुर्द कर दो। लॉर्ड मिण्टो ने डाइरेक्टरों के नाम अपने पत्रों में स्वीकार किया है कि इन धावों के कारण अराकान की प्रजा की बहुत बड़ी हानि हो चुकी थी और बरमा दरबार की शिकायत और उनकी मांग सर्वथा न्याय्य थी। फिर भी भारत की अंगरेज़ सरकार ने यह कह कर साफ़ इनकार कर दिया कि ये लोग अब
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