२०५२ भारत में अंगरेजी राज भेजी गई और कुछ मद्रास से । मद्रास की सेना करनल मैकबीन के अधीन थी जिसमें तीन पलटन गोरे सिपाहियों की और दस हिन्दोस्तानी सिपाहियों की थीं। ये दोनों सेनाएँ मार्ग में मिलकर २० मई सन् १८२४ को रंगून बन्दर के सामने जा पहुँची। - रंगून में उस समय कोई किलेबन्दी न थी। वहाँ के बरमी शासको को शायद इतने बड़े अंगरेजी जहाज़ी बेड़े की श्राशा भी न थी। थोड़ी सी गोलाबारी के बाद करीब करीब बिना संग्राम ही रंगून पर अंगरेजों का कब्ज़ा हो गया। किन्तु रंगून पर कब्ज़ा करते ही अंगरेज़ी सेना को एक अत्यन्त विचित्र स्थिति का सामना करना पड़ा। रंगून में अंगरेजों अंगरेजों को श्राशा थी कि रंगून में हमें काफी के साथ असहयोग " रसद का सामान, बोझ ले जाने के लिये जानवर और गाड़ियाँ और ऐगवती नदी में आगे बढ़ने के लिए नावे मिल जायँगी, और हम नदी के रास्ते बरमा की राजधानी भाषा तक पहुँच सकेंगे। इसके लिए कुछ समय पहले से अंगरेज़ स्याम के बाशिन्दों और खास रंगून के बाशिन्दों के साथ साज़िश कर रहे थे। ऐमहर्ट के पत्रों से मालूम होता है कि अंगरेज़ स्याम के लोगों को उकसा कर उनसे यह चाहते थे कि वे दक्खिन का ओर से बरमा पर हमला कर दें, और रंगून निवासियों को यह समझा रहे थे कि श्राप "रंगूनी" हैं "बरमी" नहीं ! किन्तु अंगरेजों की ये सब प्राशायें झूठी सावित हुई। स्याम निवासी उनके चकर में नाए और बरमा दरवार का व्यवहार अपनी समस्त प्रजा के
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