वेल्सली और निजाम कर बैठे। यदि कभी किसी से इसके विपरीत नाचरण होजातायातो टीपू अपराधी को कड़े से कड़ा दण्ड देता था। मराठों के साथ उसके संग्रामों में कम से कम दो बार अनेक मराठा खियाँ, जिनमें कुछ सरदारों की पत्नियां भी थीं, उसकी सेना के हाथों में श्रा गई। दोनों बार टीपू ने उन स्त्रियों को बड़े श्रादर के साथ अलग खेमों में रक्ता और फिर जब कि युद्ध श्रमीजारोही था, उन्हें पालकियों में बैठाकर अपनी सेना को हिफाजत में मराठों के खेमों तक पहुँचवा दिया । इस सबके अलावा टीपू अपने बाप के समान वीर योद्धा और ऊँचे दर्जे का सेनापति था । १७ साल को अल्प " का पका आयु से ही उसने संग्राम विजय करने शुरू कर दुरमन दिए थे। पिता ही के समान वह माज़ादी का सच्चा प्रेमी और देश के अन्दर विदेशियों की साम्राज्य पिपासा का पक्का दुश्मन था । अपने समय का वही एक मात्र भारतीय नरेश था, जिसके पास विदेशियों के मुकाबले के लिए सुसम्बद्ध और प्रबल जलसेना थी, क्योंकि मराठों की जलसेना उस समय तक काफ़ी घट चुकी थी। वास्तव में हैदर और टीपू से बढ़कर शत्र अंगरेजों को भारत में कोई नहीं मिला । टीपू के विरुख अंगरेज इतिहास लेखकों के विष उगलने की यही एक मात्र वजह है। किन्तु टीपू अपने समस्त सामन्तों और अनुयाइयों को उस टीपू की सफलता तरह वफ़ादारी और खैरख्वाही के पाश में बाँध कारख कर रस सका, जिस तरह के पाश में हैदर • Tipu Sultan, By Colonel Miles pp 75, 81, 95, 96, 201 and 262
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