निज्ञासु अरब किया 18 अव्यक्त, निर्गुण ब्रह्म और सगुण ईश्वर में भेद किया जाने लगा। इस तरह की अनेक सम्प्रदाएँ कायम हुई, जिनमें लोगों को विशेष 'दीक्षा' देकर भरती किया जाता था। इनमे से कोई कोई सम्प्रदाय यह मानती थी कि दीक्षित मनुष्य अभ्यास करते करते नबी और स्वयं खुदा के रुतबे तक पहुँच सकता है । गुरु (पीर) को ईश्वर और कहीं कही ईश्वर से भी बढ कर रुतबा दिया जाने लगा। मोतजली सम्प्रदाय के लोगों ने इस बात का खुले प्रतिपादन किया कि कुरान सदा के लिए निर्धान्त ईश्वर वाक्य नहीं है, बल्कि मनुष्य जाति की उन्नति के साथ साथ हर मनुष्य की आत्मा के अन्दर बराबर समय समय पर इलहाम होता रहता है। अलगिज़ाली (१०५७-११५२) ने क़ुरान, शरीयत और मामूली मुसलिम कर्मकाण्ड से असन्तुष्ट होकर संसार से पृथक तप (रियाज़त), अभ्यास (शराल) और ध्यान (ज़िक्र) शुरू किया और अपनी आत्मा के अन्दर शान्ति अनुभव की। इस तरह के आजाद रयाल सूतियों के अनेक मठ (खानकाहें) कायम हुए, जिनमें अद्वैत (वहदतुलवजूद) का उपदेश दिया जाता था, संयम (नफ्सकुशी) पर जोर दिया जाता था और भक्ति (इश्क) और योग (शग़ल) को मुक्ति का एक मात्र मार्ग बताया जाता था। कवियों और वैज्ञानिकों में अनेक तरह के अविश्वासी पैदा होने लगे, जो नबी और कुरान से इनकार करने थे, दोज़ख्न और बहिश्त और रोजे और नमाज का मज़ाक उड़ाते थे और सगुण ईश्वर के अस्तित्व को तर्क विरुद्ध बतलाते थे, यहाँ तक कि खलीफा यजीद (मृत्यु सन् ७४४) को भी इन्हीं नास्तिकों में गिना जाने लगा । प्रसिद्ध विद्वान और महात्मा अबुल अला अलमारी (मृत्यु सन् १०५७) के विचारों
- Frielhander
Heterodoxtes of Shsites JA OS No, 23 and 29