पृष्ठ:भारत में अंगरेज़ी राज - पहली जिल्द.djvu/१२

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सेवा में उपस्थित करने का निश्चय किया। मैं मेजर वसु का अनु- गृहीन हूँ कि उन्होंने न केवल सहर्ष इसकी इजाज़त ही दे दी, वरन मेरी इस पुस्तक के मसविदे को वे बराबर सुनते रहे और स्थान स्थान पर अपनी अमूल्य सलाहों से मुझे सहायता देते रहे।

पुस्तक के लिखने में स्वभावतः मुझे आशा से अधिक समय लग गया। अन्य अनेक प्रामाणिक ऐतिहासिक पुस्तकों को भी मुझे पढ़ना पड़ा और उनसे सहायता लेनी पड़ी। परिणाम रूप मीर कासिम, वारन् हेस्टिंग्स, हैदरअली, टीपू सुलतान, सिन्ध पर अगरेज़ों का कब्ज़ा और सन् १८५७ के विप्लव के सातों अध्याय, इन बारह अध्यायों की अधिकांश सामग्री मेजर बसु की पुस्तकों से बाहर की है। शेष अध्यायों में भी स्थान स्थान पर अन्य पुस्तकों से सहायता ली गई है।

पुस्तक की प्रस्तावना में मैंने यह आवश्यक समझा कि भारत पर अंगरेज़ों से पहल के अन्य आक्रमणों ओर विशेषकर अंगरेज़ों के आने के समय की भारत की स्थिति को पाठकों के सामने रख दिया जाय जिससे उन्हें अपने देश के ऊपर अंगरेज़ी राज के हितकर अथवा अहितकर प्रभाव को ठीक ठीक समझने में सुगमता हो। इस प्रस्तावना के भाग ४, ५, ७ और ८ की लगभग सम्पूर्ण सामग्री श्रीयुत् ताराचन्द एम० ए०, डी० फ़िल के निवन्ध 'दी इन्फ्लुएन्स ऑफ़ इसलाम ऑन इण्डियन कलचर' से ली गई है। मैं श्रीयुत् ताराचन्द का ऋणी हूँ कि उन्होंने मुझे अपने अमूल्य और अत्यन्त शिक्षाप्रद निबन्ध के इस प्रकार उपयोग की इजाज़त दी।