मानव धर्म था। वह लिखता है कि-एक प्रेम समस्त संसार में व्यापक है। ईश्वर की खोज के विषय मे वह लिखता है- मोको कहाँ हूँढे बन्दे, मैं तो तेरे पास में। ना मैं देवल ना मैं मसजिद, ना काबे कैलास में॥ खोजी होय तो तुरते मिलिहों, पल भर की तालास में । कहे कबीर सुनो भई साधो, सब स्वाँसों की स्वाँस में। अर्थ-ऐ बन्दे ! तू मुझे कहाँ ढूँढता है ? मैं तेरे पास हूं। मै न मन्दिर मैं हूँ न मसजिद मे, न काबे में हूँ न कैलाश मे । यदि तू सच्चा खोजी है तो मै तुरन्त एक पल भर की खोज मे तुझे मिल जाऊँगा। कबीर कहता है-हे साधो ! सुनो, साहेब सब के प्राणों का प्राण है। सूफ़ियों की तरह कबीर ने लोगों को इश्क की शराब पीने की दावत दी है । अभ्यास द्वारा ब्रह्मत्व की ओर रूह की यात्रा को कबीर ने ठीक उन्हीं शब्दों में बयान किया है जिन शब्दों मे कबीर से पाँच सौ साल पहले मनसूर ने बयान किया था। अपनी पुस्तक 'दस मुक़ामी रेख्वा' में कबीर ने हज़रत मोहम्मद के मेराज के किस्से को अपने दङ्ग से बयान किया है। वास्तव में कबीर ने भारत का ध्यान एक ऐसे सार्वजनिक धर्म की ओर दिलाया जो न हिन्दू था, न मुसलमान । इसीलिए उसने हिन्दू और मुसलमान दोनों के अलग अलग कर्मकाण्डों, दोनों के मतभेदों, दोनों के धार्मिक ग्रन्थों की निर्धान्तता इत्यादि की अत्यन्त कड़े से कड़े शब्दों में निर्भीकता के साथ पालोचना की है। ब्राह्मणों के प्रभुत्व, जात पात और छुवाछूत का वह कट्टर विरोधी था ही । राम शब्द को उसने ईश्वर के अर्थों
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