सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:भारत में अंगरेज़ी राज - पहली जिल्द.djvu/२२२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१८२
पुस्तक प्रवेश

३८२ पुस्तक प्रवेश चार दिन बल का बन्द हो गया था औरङ्गजेब के अनेक उत्तराधिकारियों ने औरङ्गजेब की सकीर्ण नीति को छोड़ कर फिर उदारता और विशालता का सबूत देना शुरू कर दिया । दिल्ली दरबार में फिर से दशहरा और रक्षा बन्धन उन्याह के साथ मनाए जाने लगे । सम्राट शाहआलम ने शिवाजी के उत्तराधिकारी पूना के पेशवा को अपनी सलतनत का 'वकील' करार दिया, और माधोजी सौंधिया को अपना 'फरजन्द जिगर बन्द' कहकर स्वयं दहली और आगरे का सूबेदार और राजधानी का शासक नियुक्त किया। शाहआलम के पुत्र प्रकारशाह नै अझसमाज के जन्मदाता प्रसिद्ध राममोहन राब को गजा का खिताब देकर और अपना विश्वस्न वकील नियुक्त करके इङ्गलिस्तान भेजा । अन्तिम सम्राट बहादुरशाह के जीवन की अनेक घटनाएँ और उसके अनेक कथन इस तरह के मौजूद हैं जिनमे ज़ाहिर है कि वह हिन्दू और मुसलमानों को एक आँख से देखता था और स्वयं सूफी विचारों का था साम्राज्य के केन्द्र की इस हितकर नीति का प्रभाव भारत के दूसरे मान्नों में भी जगह जगह साफ देखने में श्राता था । लासी के युद्ध के बाद तक बङ्गाल के मुसलमान सूबेदारों के अधीन बड़े से बड़े प्रान्तों की दीवानी हिन्दुओं को मिली हुई थी, और सूबेदार के दरबार में हिन्दू और मुसल- मानों के साथ व्यवहार में किसी तरह का भेद भाव न किया जाता था। सिराजुद्दौला का सब से विश्वस्त अनुयाई राजा मोहनलाल था जिसने लासी के मैदान में सिराजुद्दौला के लिए अपने प्राण दिए । मीरजाफर ने दीवान रज़ा खाँ के स्थान पर महाराजा नन्दकुमार को अपना दीवान नियुक्त करने की जिद की। नन्दकुमार ने ही मीर जाफर के मरने पर एक हिन्दू मन्दिर से गंगा जल लाकर उसे अपने हाथ से गंगाजल से अन्तिम