पुस्तक प्रवेश (२) भारत की तिजारत उस समय इङ्गलिस्तान की तिजारत से हजारो गुना ज्यादा बढी हुई थी, किन्तु फिर भी 'तिजारत' या व्यापार को जो स्थान उस समय यूरोपियन कौमों और खास कर अंगरेज़ क़ौम के जीवन में दिया जाता था वह भारत में कमी न दिया गया था। अंगरेज कौम एक च्यापारी कौम थी। इंगलिस्नान के बड़े से बड़े लॉर्ड्स के व्यापारी कम्पनियों में हिस्स होने थे, यहाँ तक कि, जैसा हम अभी अपर दिखला चुके हैं, इंगलिस्तान की मलका तक गुलामों के क्रय विक्रय जैसे निकृष्ट व्यापार में हिस्सा लेना या उसमे हज़ार दो हजार गिनी कमा लेना अपने लिए जिल्लत की चीज़ न समझती थी। इसके विपरीत भारत में कोई भी राजा, नवाब या जमींदार तिवारत में कभी किसी तरह का हिस्सा न लेता था, न राजदरबार से सम्बन्ध रखने वाले किसी आदमी की किली कम्पनी में पत्ती होती थी । तिजारत से धन कमाने का काम इस देश में एक गौण या छोटा काम समझा जाना था और अनादिकाल से एक श्रेणी विशेष के लिए छोड दिया गया था । यहाँ तक कि स्वेती का पेशा भी वाणिज्य से उच्चतर समझा जाता था। इसलिए किसी भारतीय नरेश का यह सोच सकना कि इस देश के साथ अंगरेजों के व्यापार के भावी राजनैतिक या राष्ट्रीय नतीजे क्या हो सकते हैं उस समय नामुमकिन था। __इसके साथ ही व्यापारी मात्र की रक्षा करना और अपने राज में च्यापार को जहाँ तक हो सके उत्तेजना और सहायता देना हर भारतीय नरेश सदा से अपना धर्म समझता था। बड़े से बड़े और छोटे से छोटे भारतीय नरेशों के इतिहास में एक ख़ास बात यह देखने को मिलती है
- The Inteilectual Development of Europe, vol ii, P244