पृष्ठ:भारत में अंगरेज़ी राज - पहली जिल्द.djvu/२२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१८७
अंग्रेजों का आना

अंगारेजों का श्राना (१) अपने और पराए का भाव जिसे आज कल राष्ट्रीयता' का भाव कहा जाता है उदार भारतवासियों के चित्तों में कभी , कर पाया था । हम उपर लिख चुके हैं कि 31 वीं सदी के शुरू में भारत के अन्दर कोई प्रबल केन्द्रीय शक्ति न रही थी। अनेक छोटी बड़ी शक्तियाँ उस समय देश के अन्दर प्राधान्य प्राप्त करने के लिए उत्सुक और प्रयत्नशील थी । मुसलमानों और हिन्दुओं मे भी ऊपर के कारणों से जगह जगह एक तरह की पृथकता पैदा हो गई थी। ऐसी हालत में एक तीसरी बाहर की ताकत अनेक लोगों को निष्पक्ष मध्यस्थ की तरह दिखाई दी। इससे पहले जितने लोगों ने बाहर से श्राकर भारत में प्रवेश किया उनमें से, उन थोड़े सों को छोड़ कर, जो महमूद ग़ज़नवी या नादिरशाह की तरह लूट मार कर चार दिन के अन्दर वापस चले गए, और किसी से भारतवासियों को किमी तरह का कड़वा अनुभव न हुआ था । हम ऊपर दिखा चुके हैं कि इन सब लोगों ने भारत में बस कर भारत को अपना घर बना लिया और समस्त भारतवासियों की उन्नति और विकास में पूरा पूरा भाग लिया। ऐसी सूरत मै अपने और गैर का भेद भारतवासियों के लिए कोई विशेष अर्थ ही न रखता था। भारतवासियों के धार्मिक और नैतिक आदर्श भी उनके अन्दर इस तरह का विचार पैदा होने न दे सकते थे। कुदरती तौर पर भारतवासियों ने सात समुद्र पार के यूरोपनिवासियों के साथ उसी तरह के प्रेम और सत्कार का व्यवहार किया जिस तरह का वे आपस में एक दूसरे के साथ करने के प्रादी थे। ऐसी सूरत में अंगरेज़ों का विविध भारतीय नरेशों के परस्पर संग्रामों से कभी एक और कभी दूसरे का साथ देना या अपनी साज़िशों द्वारा इस तरह के संग्राम खड़े करके उनसे पूरा लाभ उठाना अत्यन्त सरल हो गया।