पुस्तक प्रवेश का भी यूरोप में सदियों तक साम्राज्य रहा, जिससे इस तरह की सङ्कीर्णता के बढ़ने को और अधिक मौकर मिला । इसके अलावा यूरोप भर में अनेक छोटे छोटे देश, करीब करीब हर देश में भोजन और वस्त्र के सामान की कमी, और इस पर श्रेणी श्रेणी के बीच लगातार आर्थिक कलह और प्रति- स्पर्धा, इन सब कारणों से भी यूरोप के अन्दर मेरे और तेरे देश के भाव ज़ोर पकड़ते चले गए। किन्तु भारत के दो हज़ार साल के इतिहास में इस तरह के कोई भी कारण मौजूद व थे। यदि प्रान्तीय नरेशों में यदा कदा लड़ाइयाँ होती थी, या बाहर से चन्द रोज के लिए कोई हमला भी होता था तो करोड़ों जनता के रहन सहन, उनके जीवन, उनके धन्धों और उनकी खुशहाली पर इन लडाइयों का कोई किसी तरह का भी असर न पड़ता था। निस्सन्देह अाजकल की राष्ट्रीयता अाजकल के राष्ट्रों के स्वार्थमय जीवन संग्राम का फल है । हम स्वीकार करते हैं कि यह राष्ट्रीयता का भाव मनुष्य को एक दरजे तक व्यक्तिगत स्वार्थ के भाव से ऊपर उठा कर राष्ट्र के नाम पर अपनी आहुति देने के लिए तैयार कर देता है। इस दरजे तक यह भाव निस्सन्देह मनुष्य को ऊँचा उठाने वाला भी है। किन्तु यदि उच्च मानव प्रेम और मानव जाति के हित की दृष्टि से देखा जाय तो इसमें कोई सन्देह नहीं कि धान कल की 'राष्ट्रीयता' का भाव अधिक से अधिक एक अनिवार्य आपत्ति है और इस समय भी समस्त मानव समाज के विकास में एक बहुत बड़ी बाधा साबित हो रहा है । जो हो, भारत में इस भाव के पैदा होने के लिए अंगरेजों के आने से पहले कोई गुञ्जाइश ही न थी। यही वजह है कि भारतवासियों में अपने और पराए का भेदभाव मौजूद न था।
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