पृष्ठ:भारत में अंगरेज़ी राज - पहली जिल्द.djvu/२३३

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अंग्रेजों का आना

अंगरेजों का पाना ११३ चाहता तो बात की बात में मद्रास के किले पर कब्जा कर लेता और कम से कम दक्खिन भारत से उसी समय अङ्ग्रेजों को निकाल कर बाहर कर देता है किन्तु मदास पहुँचते ही उसने अपने वचन का पालन किया । सुलह की बातचीत हुई और विजयी हैदरअली ने पराजित अङ्करेजों के साथ सुलह स्वीकार कर ली। सन् १७ के विश्व में अवध के अन्दर बेशुमार ही मिसालें इस बात की मिलती है, जिनमें कि अवध के उन ज़मींदारों और ताल्लुकेदारों ने, जो अपने अपने इलाके में विलय के खुले नेता थे, मुसीबतज़दा अङ्ग्रेज पुरुषों, स्त्रियों और बच्चों को अपने किलों के अन्दर आश्य दिया, और उनकी प्रार्थना पर उन्हें अपनी किश्तियों में बैठा कर इलाहाबाद और अनारस भेज दिया। किन्तु चन्द महीने के बाद ये ही अंगरेज अवध वापस जाकर उन्हीं लारलुक्नेदारों के विरुद्ध लडते हुए दिखाई दिए। इस तरह की और अधिक मिसालें देना केवल इस विषय को विस्तार देना होगा । जिन भारतवासियों ने अंगरेजों और भारत के सम्बन्ध में समय समय पर देशघातकता का परिचय दिया उनमें भी शायद बिरले ही ऐसे होंगे जिन्होंने अंगरेजों के साथ अपने वचनों का पालन न किया हो । सच यह है कि यदि मध्य काल के और भाजकल के यूरोप के इतिहास को ध्यान से पदा जाय तो मालूम होगा कि देशीयता या राष्ट्रीयता के सङ्कीर्ण भाव यूरोप की विशेष सामाजिक परिस्थिति की एक उपज हैं । मध्य कालीन यूरोप में जमींदारों और काश्तकारों, रईसों और गरीबों के बीच वह जबरदस्त संधाम करीब एक हजार साल तक जारी रहा जिसकी वजह से वहाँ की जनता में अपने और पराए का भेद ज़ोरों से जम जाना कुदरती था । धार्मिक पक्षपात