अर्वाचीन यूरोप इस समय एक कठिन परीक्षा के तहदिव्य में ले निकल रहा है।
इसके विपरीत जिन नैतिक आदर्शों पर प्राचीन भारत और प्राचीन चीन जैसे देशों ने अपने सामाजिक जीवन को कायम किया था उन आदर्शों के सहारे ये देश हज़ारों साल तक सुख चैन से रह सके और कम या ज़्यादह अपने से सम्बन्ध रखने वाले संसार के अन्य देशों को भी सुख चैन से रख सके।
ऐसी हालत में हमें सब से ज्यादह ध्यान इस बात का रखना होगा कि हम अपने आज़माए हुए और मानव समाज के लिए कही अधिक कल्याणकर आदर्शों को हाथ से न खो बैठे। जो स्थान भटके हुए यूरोप ने भान बिजली और कूटनीति को दे रक्खा है वह हमें मानवप्रेम और सत्यता को देना होगा, और हर मनुष्य के व्यक्तिगत 'अधिकारों' पर जो़र देने के स्थान पर हमें मनुष्यमात्र के लिए 'कर्तव्यपालन' को अधिक महत्त्व देना होगा।
इसके बाद हमे अपने राष्ट्रीय रोग के जड़ों की ओर दृष्टि डालनी होगी और साहस के साथ उन्हें अपने जीवन से उखाड़ कर फेकना होगा। असत्य को छोड़ कर हमें फिर से अपने राष्ट्रीय जीवन को सत्य की नींव पर कायम करने का महान प्रयत्न करना होगा। हमारा पथ इस विषय में बिलकुल स्पष्ट है। आज से पौने तीन सौ साल पहले जिस मार्ग से विचलित हो जाने के कारण धीरे धीरे हमारी राष्ट्रीय विपत्तियों का