पृष्ठ:भारत में अंगरेज़ी राज - पहली जिल्द.djvu/२४५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२०५
हमारा कर्त्तव्य

हमारा कर्तव्य २०३ प्रारम्भ हुआ, अपने कल्याण के उसी एक मात्र मार्ग को हमे फिर से ग्रहण करना होगा । हमें यह स्वीकार करना होगा कि मानव समाज के टुकड़े करने वाली पृथक पृथक धर्मों और सम्प्रदायों की दीवारें कृत्रिम और हानिकर हैं। कबीर के शब्दों में हमें यह मानना पड़ेगा कि इस संसार में 'दो जगदीश' नहीं हो सकते । हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि किसी देश, किसी काल, किसी जाति या किसी भाषा विशेष ने, चाहे वह कितनी भी प्राचीन क्यों न हो,ईश्वरीय ज्ञान का इजारा नहीं ले रक्खा । वास्तव में इस तरह के अनुदार विचार ही मानव समाज की आधी से अधिक विपत्तियों की जड हैं । सारांश यह कि जन सामान्य को अपने अपने ढंग से अपने इष्टदेव को आराधना करने में स्वाधीन छोड़कर भी हमें सब धर्मों की मौलिक एकता को साक्षात करना होगा । उस मौलिक एकता की रोशनी में ही हमें हिन्दू. मुसलमान, सिक्ख, जैन, पारसी और ईसाई के भेदों की असत्यता और हानिकरता को भी अनुभव करना होगा और समस्त समाज को एक सच्चे सार्वभौम मानवधर्म की ओर लाने का सस्नेह और प्रशान्त प्रयत्न करना होगा। जात पाँत या छुवाछूत जैसी रूढ़ियों की अनर्गलता और अन्याय्यता को तो आज अधिकांश विचारवान भारतवासी अनुभव करने लगे हैं। इन समस्त भेदभावों को हमें अपने राष्ट्रीय जीवन से समूल उखाड कर फेंक देना होगा। इस सब के स्थान पर हमे मानव समता, मानव प्रेम, परसेवा, स्वार्थत्याग, न्याय और सत्यता के उस सार्वभौम धर्म को अपना एक मात्र धर्म स्वीकार करना होगा, जिस वक मनसूर और कबीर जैसे अनेक सूक्तियों और महात्माओं ने हमें लाने का प्रयत्न किया। निस्सन्देह यदि दो सौ साल पहले ही हमने अपने जीवन को इन सञ्ची