पृष्ठ:भारत में अंगरेज़ी राज - पहली जिल्द.djvu/२४७

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हमारा कर्त्तव्य

हमारा कसम्म २०० चुका है। इसी एक मात्र अमोघ शक्ति का हमें अपने इस दुखित देश के उद्धार के लिए श्राश्रय लेना होगा। सीसरी बात हमे यह भी स्पष्ट दिखाई दे रही है कि अपनी पराधीनता के एक एक विभाग में हमारी ही शक्तियाँ हमारे विरुद्ध काम कर रही हैं। विदेशी व्यापार के हर मह में, विदेशी शासन के हर मोहकमे में हम स्वयं ही अपनी बड़ियों के वास्तिविक गढने वाले हैं। बिना भारतवासियों की महायता के न विदेशी शासन भारत में कायम हो सकता था और न एक क्षण के लिए इस समय चल सकता है। जाने या अनजाने, हमारा यह स्वार्थ, हमारा यह पाप ही देश की समस्त वर्तमान आपत्तियों की जड है और उसी के द्वारा ये श्रापत्तियाँ कायम हैं । इलाज स्पष्ट है। हमें अपने बिनाश के साधनों से सहयोग करने के इस महापाप से अपने को मुक्त करना होगा। निस्सन्देह मार्ग सर्वथा निष्कपटक नहीं है। किन्तु संसार का कोई भी महान कार्य विना स्वार्थत्याग और कष्टसहन के सिद्ध नहीं हो सकता । कोई मनुष्य या राष्ट्र विना अपने पिछले पापों का प्रायश्चित किए धर्म और कल्याण के मार्ग पर अग्रसर नही हो सकता। भारत के राजनैतिक उद्धार का इस समय यही एक मात्र मार्ग है । हर भारतवासी के लिए सच्चे कर्तव्य पालन का यही एक मात्र पथ है। हमारा भविष्य जिस तरह हर मनुष्य से उसी तरह हर राष्ट्र से अपने जीवन में भूलों का होना स्वाभाविक और अनिवार्य है। अपनी इन भूलों के दुष्परिणाम भी हर व्यक्ति या राष्ट्र को सहने ही पड़ते हैं। किन्तु भविष्य के लिए