भारत में यूरोपियन जातियों का प्रवेश २६ कायम रहा। दूप्ले की सब कार्रवाई निष्फल गई । इस पर भी उसके प्रयत्न जारी रहे। जव खुले संग्राम में न जीत सका तो उसने अपने गुप्त अनुचरों द्वारा सूवेदार नाज़िरजंग को कत्ल करवा दिया और एक बार फिर मुजफ्फरजंग को दक्खिन का सूबेदार और चंदासाहव को करनाटक का नवाब एलान करवा दिया। किन्तु त्रिचनपल्ली का मजबूत किला मोहम्मद अली के हाथों मे था। त्रिचन्नपल्ली पर ही वह ज़बरदस्त और अंतिम संग्राम हुआ जिसमें दक्खिन के इन तीनों राजकुलों और अंगरेज़ों तथा फ्रांसीसियों-सब की किस्मत का फैसला हो गया। त्रिचन्नपल्ली ही वह चट्टान मानो जाती है जिससे टकराकर इस देश के अन्दर दृप्ले और फ्रांसीसियों की समस्त आकांक्षाएँ चूर चूर हो गई। चंदासाहव और फ्रांसीसियों की सेनाएं एक ओर थीं, मोहम्मद- अली और अंगरेजों की सेनाएं दूसरी ओर । एक फ्रांसीसी सेना यूरोप से दूप्ले की सहायता के लिए भेजी गई, किन्तु वह भी अंगरेजों के इकबाल से कहीं मार्ग ही में डूवकर खतम होगई। त्रिचन्नपल्ली के संग्राम में फ्रांसीसियों के पक्ष की हार रही! मजबूर होकर सन् १७५४ ईसवी में फ्रांस की सरकार ने दूप्ले को फ्रांस वापस बुला लिया । फ्रांस ने इसके बाद भारत के राजनैतिक झगड़ो से तटस्थ रहना ही अपने लिए हितकर समझा। दोनों यूरोपियन कम्पनियों में संधि हो गई कि आइन्दा भारत की "देशी रियासतों के आपसी झगड़ों में दोनों में से कोई कभी दखल न दे।” फ्रांस ने इस शर्त पर अमल किया, किन्तु अंगरेजों
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