मीर जाफ़र समय तक पटने पहुँच चुका था और रामनारायन ने अपने विनम्र व्यवहार से शहज़ादे को प्रसन्न कर लिया था। क्लाइव और मीरन के पहुँचने पर कहते हैं, मुर्शिदाबाद को सेना और शहज़ादे की सेना में कुछ लड़ाई भी हुई। मालूम नहीं इस लड़ाई का होना कहाँ तक सच है । मुर्शिदाबाद की सेना का शहज़ाद की ज़बरदस्त सेना पर विजय प्राप्त कर सकना विल्कुल नामुमकिन था। उस समय के उल्लेखौ से जाहिर है कि क्लाइव ने शहज़ादे के सामने अपनी राजभक्ति का पूरा प्रदर्शन कर शहज़ादे को अपनी ओर करने का भरसक प्रयत्न किया और अंत में कुछ समझौता हो गया। शहज़ादा मय अपनी सेना के दिल्ली की ओर लौट गया और मीर जाफ़र का डर कुछ समय के लिए दूर हो गया। मुर्शिदाबाद पहुँच कर इस उपकार के बदले में क्लाइव ने मीर जाफर से अपने लिए साम्राज्य के 'उमरा' का क्लाइव की खिताब और एक जागीर प्राप्त की। जोज़मीदारी ___ कलकत्ते के श्रास पास कम्पनी को मिली हुई थी उसके मालकाने के रूप में कम्पनी को हर साल तीन लाख रुपए नवाब की सरकार में जमा कराने पड़ते थे। अब से यह सब ज़मी- दारी "क्लाइव की निजी जागोर" बन गई और वजाय मुर्शिदाबाद की सरकार के क्लाइव खुद इस तीन लाख सालाना का कम्पनी से हकदार हो गया। क्लाइव इस समय सचमुच एक हिन्दोस्तानी नवाव बना हुआ था। क्लाइव की इस "जागीर" का जिसे अपने असहाय “गधे" जागीर
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