पृष्ठ:भारत में अंगरेज़ी राज - पहली जिल्द.djvu/४५३

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मीर का़सिम

मीर कासिम उचित प्रबन्ध कर मीर कासिम अज़ीमाबाद ( पटना ) के लिए रवाना हो गया। "सीअरुल-मुताख़रीन" से पता चलता है कि मीर कासिम के जाते ही मुंगेर के किलेदार अरब अली ख़ाँ ने नकद रिशवत लेकर अपना किला चुपचाप अंगरेजों के सुपुर्द कर दिया। अंगरेजों ने मुंगेर पर कब्जा जमा कर अब मीर कासिम का पीछा किया। महाराजा कल्यानसिंह की पुस्तक "खुलासतुल तवारीख" में लिखा है कि अज़ीमावाद किले के संरक्षक मीर मोहम्मदअली खाँ ने अपने लिए पांच सौ रुपए मासिक पेन्शन कम्पनी से मंजूर करा कर बिना विरोध वहाँ का किला भी शत्रु के हवाले कर दिया। मीर कासिम को इस समय अपने चारों ओर सिवाय दगा के और कुछ नज़र न आता था । अंगरेज़ों को अब केवल दो बातों की चिन्ता थी। एक एलिस इत्यादि जो अंगरेज़ मीर कासिम के पास अभी तक कैद थे उन्हें छुड़ा लेना और दूसरे किसी प्रकार मीर कासिम को गिरफ्तार करना। १६ सितम्बर सन् १७६३ को एडम्स और कारनक ने मीर कासिम के एक फ्रान्सीसी मुलाज़िम जाँती (Gentil ) को इस मज़मून का पत्र लिखा:- मुसलमानों के हाथों में जब कभी ताकत होती है और उन्हें कोई डर नहीं होता तो वे सदा हमारे सहधर्मियों और यूरोप निवासियों के साथ क्रूर से ऋर पाशविकता का व्यवहार करते हैं। किसी ईसाई के लिए मुसलमानों की नौकरी करना बड़ी जिल्लत का काम है। हमारा यह भी अनुमान है कि किसी बहुत ही ज़बरदस्त जरूरत से मजबूर होकर ही आपने इतनी ज़िल्लत को नौकरी स्वीकार की होगी। अब ऐसी कष्टकर गुलामी से बच निकलने का १३