पृष्ठ:भारत में अंगरेज़ी राज - पहली जिल्द.djvu/४६९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२०७
फिर मीर जाफर

फिर मीर जाफ़र २०७ राजा कल्यानसिंह शुजाउद्दौला की सेना में एक ऊँचा ओहदेदार था और अपने यहाँ की सेना की संख्या, सामान, शुजाउद्दौला की . इरादों इत्यादि की पूरी सूचना अंगरेज कम्पनी सेना में विश्वास- के अफसरों को देता रहता था। उसने अपने घातक एक लेख में स्वीकार किया है :-- "महाराजा शिसाबराय उस समय अज़ीमाबाद में थे, उनका एक मुन्शी राय साधोगम फुलवाड़ी में मुझसे मिलने के लिए आया xxx मैंने उससे यह कहा कि अंगरेज अफसरों को और मौर मोहम्मद जाफर खों को विश्वास दिला दी कि मैं उनके साथ हूँ और इस बात के इन्तज़ार में बैठा हूं कि भौका मिले और मै लड़ाई का सारा रुख उनके पक्ष में मोड़ दूं : राय साधो राम ने मेरा सन्देश पहुंचा दिया और वापस आकर मुझे इत्तला दी कि आपके सहानुभूति और श्राशा से भरे संदेश को पाकर अंगरेज़ और नवाब दोनों खुश हुए और उन्हें श्राप पर पूरा भरोसा है ।"* एक तीसरे देशघातक और विश्वास घातक जैनुल आबदीन का एक पत्र अंगरेज सेनापति मेजर मनरो के नाम २२ सितम्बर सन् १७६४ को कलकत्ते पहुँचा ! इस पत्र में लिखा है :- "असद खाँ बहादुर की भारफ़त श्रापका मित्रता सूचक पत्र मेरे पास पहुँचा, जिसपे मेरो इज़न बढ़ी। उस पत्र में आपने इच्छा प्रकट की है कि जितने अधिक मज़बूत और हथियारबन्द मुशल, नूरानी और अन्य सवारों को हो सके, साथ लेकर मैं आपसे श्रा मिल ।। “जनाबमन् , हर आदमी के लिए और खासकर खानदानी लोगों के B& OR ८ ६६, pp_148, 149