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भारत में अंगरेज़ी राज

२४६ भारत मे अंगरेजी राज कि पांच साल पहले यानी सन् १७७० ई० में नन्दकुमार ने किसी कागज़ पर जाली दस्तखत किए थे। सन् १७७३ ई० में कम्पनी की ओर से कलकत्ते में एक नई अदालत 'सुप्रीम कोर्ट के नाम से कायम हुई थी। वारन हेस्टिंग्स का एक लड़कपन का दोस्त सर एलाइजाह इम्पे उसका चीफ जस्टिस था। सर एलाइजाह इम्पे के सामने महाराजा नन्दकुमार पर जालसाजी का मुकदमा चलाया गया। मिल की पुस्तक और उस समय के अन्य इतिहालों से साफ जाहिर है कि नन्दकुमार पर जालसाज़ी का इलज़ाम बिलकुल झूठा था। फिर भी कई झूठे गवाह खड़े कर दिए गए। दूसरे पक्ष की सफाई के सबूत की ख़ाक परवा नहीं की गई। भारत में उस समय देशी या अंगरेज़ी कोई कानून भी इस तरह का न था जिसस जालसाजी के जुर्म में मौत की सज़ा दी जा सके । किन्तु हेस्टिंग्स के दोस्त मर एलाइजाह इम्पे ने फौरन महाराजा नन्दकुमार को मुजरिम क़रार देकर हजारों भारतवासियो की आँखों के सामने ५ अगस्त मन् १७७६ को कलकत में फांसी पर चढ़वा दिया। मिल लिखता है कि महाराजा नन्दकुमार ने अपूर्व शान्ति और धैर्य के साथ मौत का सामना किया और अपने हजारों देशवासियों को फाँसी के चारों ओर जार जार रोता और चीखता छोड़कर इस दुनिया से कूच किया। जालसाज़ी ही के ऊपर क्लाइव ने भारत के अन्दर ब्रिटिश राज की नींव रक्खी । और खुले शब्दों में उसने अपनी इस जालसाजो को स्वीकार किया। किन्तु उस जालसाज़ी के इनाम में क्लाइव को