२६६ भारत म अगरेजी राज अफगानों से पंजाब विजय किया और जिल मराठा सरदार को वहाँ की हुकूमत सोपी उस 'दिल्ली' सन्नाट का एक सूबेदार कहकर नियुक्त किया। फिर भी दिल्ली दरबार की निर्बलता के सबब मराडौं की उस समय की सत्ता वास्तव में स्वाधीन सत्ता थी ! और पेशवा ही हिन्दोस्तान के उत्तर से दक्खिन और पूरब में पच्छिम तक यानी अटक से करनाटक और बंगाल की सरहद से खम्भात की खाड़ो तक फैले हुए इस विशाल मराठा साम्राज्य का क्रियात्मक सम्राट था। किन्तु यह मराठा साम्राज्य चन्द रोज़ भी अपने पूरे वैभव की कायम न रख सका। मालूम होता है कि साम्राज्य । के साथ ही साथ मराठा सरदारों में एक दूसरे की अवनति "सं ईर्षा और प्रतिस्पर्धा बढ़ने लगी। वे श्रीहीन किन्नु निरपराध और गोपयोगी दिल्ली सम्राट को भी तस्त से उतार कर उसकी जगह लेने के चक्कर में पड़ गए। उनमें से कुछ अपने या अपने कुलों के लाभ के लिए अपने देशवासियों, यहाँ तक कि स्वयं पेशवा के खिलाफ विदेशियों से मेल करने में भी न झिसके। एक पिछले अध्याय में लिखा जा चुका है कि इस तरह के भीतरी दोषों के कारण ही मराठों की सत्ता को पहला धक्का सन् १७६१ में पहुँचा, जबकि पानीपत के ऐतिहासिक मैदान में अहमदशाह अब्दाली की सेना ने मराठों की संयुक्त संना को हरा कर उन्हें उत्तरीय भारत से सदा के लिए निकाल बाहर किया। उसी समय से दिल्ली के सम्राट पर से मराठों का प्रभाव उठ गया और उस प्रहाशसस्त्राव्य
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