३१२ मारत में अंगरेजी राज अपनी मुसीबन की इनला दी। हैदर साहब ने फौरन धन भेजकर शहबाज़, हैदरअली और उनकी माँ तीनों को छुड़वाया और उन्हें श्रीरंगपट्टन में बुलवाकर बड़े श्रादर और प्रेम से अपने पास रक्खा । यहाँ पर शुरू से ही शहबाज़ और हैदरअली दोनों को घोड़े को सवारी, निशानेबाज़ी, शस्त्रों का उपयोग और युद्ध विद्या की पूरी तालीम दी गई। बालिग होने पर शहबाज़ और हैदरअली दोनों भाई मैसूर की फौज में भरती हो गए। मैसूर की हिन्दू रियासत दिल्ली सम्राट की आज्ञानुसार मराठो को 'चौथ' दिया करती थी। इस एक बात के अलावा और सब तरह अपने भीतरी शासन में मैसूर की रियासत स्वाधीन थी। दक्विन के सूबेदार निज़ामुलमुल्क को मैसूर दरबार के ऊपर किसी तरह का क्रियात्मक प्राधिपत्य प्राप्त न था। सन् १७४८ ई० में हैदराबाद के निज़ाम का देहान्त हुश्रा। मृत्यु से पहले निज़ाम ने मुजफ्फरजंग को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया। अंगरेजों ने एक दूसरे मनुष्य नाज़िरजंग को हकदार खड़ा कर दिया और उसका पक्ष लेकर लड़ना शुरू किया। झांसीसियों और मैसर दरवार ने मुजफ्फरजंग का साथ दिया। अन्त में मुफफ्फरजंग ही की विजय रही। इन लड़ाइयों में हैदर अली का बड़ा भाई शहबाज़ मैसूर की ओर से लड़ रहा था। उसके अधीन दो सौ सवार और एक हजार पैदल थे। हैदरअली इस समय अपने भाई के अधीन एक मामूली धुड़ सवार था। मैसूर के महाराजा एक अरसे से सिंहासन की केवल एक
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