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पृष्ठ:भारत में अंगरेज़ी राज - पहली जिल्द.djvu/५८९

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३१३
हैदरअली

हैदरअली ३१३ शोभा समझे जाते थे। महाराजा का अधिकांश समय महल के 'देव' की पदवी . अन्दर पूजा पाठ और अन्य धार्मिक क्रियाओं में " व्यतीत होता था। यहाँ तक कि महाराजा साल में केवल दो बार अपनी प्रजा के सम्मुख पाता था। शासन के काम से उसे किसी तरह का सम्बन्ध न था। समस्त शासन प्रधानमन्त्री के सुपुर्द था, जिसे 'दैव' या 'दलवाई' कहते थे। देव ही राज का क्रियात्मक स्वामी होता था । देव की गद्दी पैतृक थी। यह रिवाज कई पीढ़ियों से चला आता था। पिछले युद्ध में मैसूर का देव नन्दीगज हैदरअली की योग्यता और वीरता को देख कर इतना खुश हुआ कि सन् १७५५ में उसने हैदरअली को डिण्डीगल का फ़ौजदार नियुक्त कर दिया। इन युद्ध में ही हैदरअली ने फांसीसियों की सैनिक व्यवस्था और उनकी कवायद को अच्छी तरह देखा और डिण्डीगल में फौज को कवायद सिखाने के लिए कुछ फ्रांसीसी अफसर नौकर रखें। अपने तोपखाने में भी उसने कुछ फ्रांसीसी कारीगर नियुक्त किए। धीरे धीरे हैदरअली का बल बढ़ता गया। यहाँ तक कि वह रियासत का प्रधान सेनापति हो गया। थोड़े व' दिनों बाद मैसूर दरबार के मंत्रियों में आपसी नियुक्त होना "" झगड़े बढ़े । खाँडेराव ने किसी तरह साजिश कर नन्दीराज को गद्दी से अलग कर अपने को मैसूर का 'देव' नियुक्त करा लिया। लिखा है कि राजधानी श्रीरंगपट्टन की प्रजा खाँडेराव से बहुत असन्तुष्ट थी। खांडेराव एक मराठा