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भारत में अंगरेज़ी राज

भारत में अंगरेजी राज था। मद्रास के गवरनर हॉलैण्ड के एक पत्र में यह भी लिखा है कि-'कम्पनी से लड़ने का टीपू का बिलकुल इरादा न था और यदि कोई बाते शिकायत की थीं भी तो वह उन्हें आपस में पत्र व्यवहार द्वारा तय करने को राजी था।" टीपू ने खुद अंगरेजों को यकोन दिलाया कि मेरा इरादा न हरगिज़ शान्ति संग करने का है और न त्रिवानकुर की प्राचीन रियासत पर हमला करने का। करनल विल्कल लिखता है कि टीपू "लड़ाई के लिए तैयार न था" किन्तु कॉर्नवालिस को अपने मालिकों की आज्ञा मिल चुकी थी। वह सन् १७८४ की सन्धि को पैरों तले रौंद कर, जिस तरह हो, टोपू को मिटाने और भारतीय ब्रिटिश राज की सीमाओं को बढ़ाने का सङ्कल्प कर चुका था। उसने मद्रास के गवरनर को उत्तर में लिखा कि-"टीपू का तैयार न होना ही कम्पनी के लिए सब से अच्छा मौका है।" टीपू को बदनाम करने और अपने अन्याय को लोगों की नजरों में जायज़ करार देने के लिए टीपू के अन्यायों और अत्याचारों के अनेक झूठे किस्से गढ़कर चारों ओर फैलाए गए, जिनमें से अनेक अभी तक भारतीय स्कूलों की पाठ्य पुस्तकों में पाए जाते हैं। त्रिवानकुर की सहायता के नाम पर युद्ध छेड़ा गया, किन्तु इसके बाद की तमाम काररवाइयों में त्रिदानकुर के राजा का कहीं नाम भी नहीं आता। सब से पहले जून सन् १७६० में मद्रास से एक फ़ौज जनरल मोडोज़ के अधीन मैसूर पर हमला करने के लिए रवाना हुई।