"उनके दो गिरोह हैं। एक तो बेकैद अर्थात् स्वतन्त्र और दूसरे बेतरस अर्थात् नियर्य। बेकैद फकीर बहुत अक्खड़ होते हैं और बातचीत में बहत आज़ादी बरतते हैं। इच्छा हो तो गाली भी सुना बैठते हैं कि तौबा ही भली। ये बड़ी निर्भीकता से लोगों के घरों में घुस जाते हैं, और अगर दरबान इन्हें रोकने की चेष्टा करे तो उसके स्वामी और बच्चों को ऐसी-ऐसी अनुचित गालियाँ सुनाते हैं कि कुछ न पूछिये। तिस पर भी कोई इनकी बातों पर नाराज नहीं होता और खुशामद व चापलूसी से इनके क्रोध को कम करते, क्षमा माँगते हैं और भिक्षा देकर टालते हैं। यदि इन लोगों को दरवाज़े पर न रोका जाय तो यह सीधे मालिक के पास जाकर बिना सलाम बन्दगी किये उन्हीं फटे पुराने कपड़ों और मिट्टी में भरे हुए हाथ पाँव के साथ उसके पास जा बैठते हैं और उसके मुँह से हुक्का छीनकर खुद पीने लग जाते हैं। घर का स्वामी इसे बड़ी भारी प्रतिष्ठा समझता है और उसके लिये उन्हें धन्यवाद देते हुए उन्हें रुपया इत्यादि देकर खुश करते हैं। किसी दिन यह लोग ऐसी जिद करते हैं कि जो मुँह से माँगे, लेकर छोड़ते हैं। यह लोग कभी परमेश्वर के नाम पर भिक्षा नहीं माँगते। क्योंकि कहते हैं कि उसके नाम पर कुछ माँगना उसका अपमान करना है। हर मनुष्य शक्ति के अनुसार इन्हें कुछ न कुछ अवश्य देते हैं क्योंकि एक तो यह लोग ईश्वर के बड़े विश्वासी हैं और दूसरे प्राकृतिक ही बड़े दयालु होते हैं।
"बेतरस फ़कीर वह हैं जो अपने हाथों में तेज छुरी लिये हुए भीख माँगते हैं। उनके भिक्षा माँगने का कायदा यह है कि वह दूकान के सामने खड़े हो जाते हैं और जिस वस्तु की आवश्यकता होती है उसकी तरफ इशारा कर देते हैं। ये जो माँगते हैं वह अगर दूकान वाला दे दे तब तो खैर वरना अपने हाथ की छुरी से हाथ पाँव सर इत्यादि में जख्म करके खून दुकान के भीतर फेंक देते हैं। ये लोग प्रायः बनियों की दुकान पर जाकर माँगते हैं क्योंकि वह डरपोक होने के कारण खून का दृश्य नहीं देख सकते और शीघ्र ही उनकी इच्छानुसार वस्तु देकर छुटकारा पाते हैं।"
बादशाह अपने छोटे पुत्र औरङ्गजेब से बहुत सतर्क रहता और उससे घृणा करता था। चारों शाहजादों में अल्पावस्था से ही द्वेषाग्नि भड़कने लगी थी। अतः उसने चारों को अलग-अलग करने की सोची। शुजा को बङ्गाल