क्षित है। क्योंकि इसकी स्त्री नित्य इसके मुँह पर वे जूते मारती है। इस प्रकार सारी सम्पत्ति उसे दे देती है।"
बादशाह यह जवाब सुन मुस्कराये और खलीलउद्दीन लज्जित हो दरबार से चले आये।
बादशाह ने अपने साले नबाब शाइस्ताखाँ की स्त्री पर भी हाथ साफ करके छोड़ा। वह राजी न होती थी--इस पर बादशाह ने चालाकी से काम लिया। इससे उसे इतना रंज हुआ कि उसने खाना कपड़ा त्याग दिया और जान दे दी। शाइस्ताखाँ ने उस समय तो चुप साध ली पीछे बदला लिया। जफरखाँ और खलीलखाँ की स्त्रियों का शाह से सम्बन्ध इतना प्रसिद्ध हो गया था कि रास्ते में जब वे गुजरतीं तो फक़ीर कहते--ऐ नाश्ते शहनशाह! हमें भी याद रखना, या-लुक़मे शाहजहाँ, हमें भी कुछ दिलवा।
बादशाह ने अपने ऐश के लिये चौबीस हाथ लम्बा और आठ हाथ चौड़ा एक कमरा बनवाया था। जिसमें चारों ओर बड़े-बड़े शीशे लगे थे। इसकी सजावट में जो सोना खर्च हुआ था वह डेढ़ करोड़ की लागत का था। जवाहरात की कीमत का कहना क्या! इसकी छत में दो शीशों के बीच में सोने की क्यारियाँ जड़ी थीं जिनमें जवाहरात जड़े थे। शीशों के गोशों में मोतियों के गुच्छे लटकते थे। इस कमरे की दीवार संगेयशब की थीं। इसी में वह अमीरों की स्त्रियों के साथ विहार करता था।
यह बादशाह क़िले में मीना बाजार भी लगाता था जो आठ दिन तक लगा रहता था। इन आठ दिनों में कोई मर्द क़िले में नहीं आ सकता था--फाटक बन्द रहता था। किले के भीतर खूब नाच-रङ्ग तमाशे होते थे। सब काम स्त्रियाँ करती थीं। वहाँ नीच-ऊँच सब जाति की स्त्रियाँ जातीं और वस्तुएं बेचा करती थीं। जाने वालियों का उद्देश्य बादशाह की दृष्टि में पड़ जाना होता था--इसी कारण कोई प्रतिष्ठित स्त्री वहाँ नहीं जाती थी। फिर भी इन जाने वाली स्त्रियों की संख्या तीन हजार तक पहुँच जाती थी।
बादशाह नित्य बाजार में जाता। वह एक सुन्दर छोटे तख्त पर सवार होता, जिसे कुछ तातारी बाँदियाँ उठाये होती थीं। आस-पास कई स्त्रियाँ हाथों में स्वर्ण के आसा लिये और कई ख्वाज़सरा रहते थे जो