पृष्ठ:भारत में इस्लाम.djvu/११९

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११० पर उसने कहा कि मैं दारा को अपना युवराज बनाना चाहता हूँ और जहाँ तक भी बनेगा इसको अपना युवराज बनाऊँगा। यह भी किम्बदन्ती थी कि दारा ने महाप्रसिद्ध और चतुर अमीर सईदउद्दौला के प्राण ज़हर से लिये थे, क्योंकि वह औरङ्गजेब का पक्षपाती था। बादशाह और सारा दरबार इससे प्रेम करता था। इसी प्रकार उसने एक हिन्दू राजा जयसिंह को भी अप्रसन्न कर लिया। यह पुरुष चालीस हज़ार सवार और एक लाख पचास हज़ार सेना दल का अधिराज था। दारा ने एक बार कहा कि जयसिंह मिरासी प्रतीत होता है। राजा दिखा- वटी रूप में तो उस कटाक्ष को हजम कर गया, परन्तु जिस समय दारा को उसकी आवश्यकता पड़ी तो उसने अपना बदला लेकर ही छोड़ा। उसने उमरा को भी अपने प्रतिकूल बना कर महावीर मीरजुमला से भी मखौल किया, और जब बादशाह के दरबार में आया तो अपने चलते पुों के द्वारा उसकी तलवार चुरा ली और समय-समय पर अपने मसखरों से उसकी चाल-ढाल पर नक़ल कराता रहा। शाहजहाँ का तीसरा बेटा औरंगजेब अपने सब भाइयों से स्वभाव में निराला, संजीदा और कार्य गुप्त रूप से निकालने का आदी था। इसका चित्त कुछ रोगी सा था और सदा कुछ-न-कुछ करता रहता था। इसका उद्देश्य यह रहता था कि बात की तह को पहुँचकर पूरा न्याय करे । उसे यह बड़ी चाह थी कि दुनिया उसे बुद्धिमान, चतुर और न्यायरक्षक समझे । दान- पुण्य करने में भी वह अच्छा था, और केवल वहीं पारितोषिक और दान देता था जहाँ पूरी आवश्यकता हो। परन्तु चिरकाल तक उसने यह प्रसिद्ध कर छोड़ा कि उसने दुनिया को त्यागकर राजसिंहासन के सब हक़ छोड़कर अपनी आयु ख दा की पूजा में व्यतीत करने का निश्चय कर लिया है। फिर भी दक्षिण में होते हुये वह अपनी बहन रोशनआरा के द्वारा सिंहासन के लिये पूरा उद्योग करता रहा परन्तु जो कुछ होता था वह गुप्त रूप से और ऐसी चतुराई से होता था कि किसी को भेद न लगे। इसके अतिरिक्त उसे भय था कि उसे दक्षिण से बुला न लिया जाय । इसीलिये वह सदा इस उद्योग में था कि शाहजहाँ के दिल पर घर करे । 1