. - १२७ हराया था, तब ईरान के शाह ने ही उसकी सहायता की थी, जिससे राज्य- प्राप्ति हुई थी। पर भाग्यवश उसने वहाँ न जाकर ठट्ठ के किले में आश्रय लिया । औरंगजेब ने जब देखा कि वह काबुल नहीं जा रहा है, तब उसका खटका मिट गया और वह मीर बाबा नामक धाय के बेटे के सुपुर्द आठ हज़ार सेना छोड़कर आगरे की ओर लौटा। उसे भय था जयसिंह या जसवन्तसिंह या सुलेमान शिकोह ही स्वयं आकर बादशाह को छुड़ा न ले, या शुजा ही न चढ़ाई कर बैठे। अस्तु, ठट्ठ के दुर्ग में जा, दारा एक ख्वाजासरा को वहाँ का किलेदार नियत किया, और अपना सब खज़ाना वहाँ रखा, जो बहुत था। फिर वह तीन हजार सेना को साथ लेकर सिन्धु नदी के किनारे-किनारे कच्छ होता हुआ गुजरात पहुँचा और अहमदाबाद के बाहर डेरा डाल दिया । यहाँ शाहनेवाजखाँ ने, जो औरङ्गजेब का श्वसुर था और किलेदार था-वह कोई योद्धा न था-किले के द्वार खोल दिये और सम्मान से दारा का सत्कार किया। दारा ने उसकी सरलता पर मुग्ध हो अपने सब गुप्त उस पर प्रकट कर दिये। औरंगजेब ने यह सुना, तो उसे चिन्ता हुई , क्योंकि अभी उसके बहुत शत्रु थे, और अहमदाबाद जैसी मजबूत जगह में उसके पाँव जमने उसे स्वीकार न थे । उसे भय था कि जयसिंह और जसवन्तसिंह भी उससे मिल जायेंगे । उधर उसने यह भी सुना कि भारी सेना लिये सुलतान शुजा दौड़ा चला आरहा है, और इलाहाबाद तक आ चुका है । उसे यह भी खबर मिली कि श्रीनगर के राजा की मदद से सुलेमान शिकोह भी तैयारी कर रहा है । सब विपत्तियों पर विचार कर, दारा का ध्यान छोड़, वह आगरे की राह छोड़ शुजा पर लपका, जो इलाहाबाद में गंगा के इस पार तक आ गया था । खजुआ नामक गाँव में दोनों सेनाएँ मिलीं । यहाँ मीर जुमला भी उससे बहुत-सी सेना-सहित आ मिला। युद्ध हुआ। इस युद्ध में जस- वन्तसिंह ने जो औरंगजेब से आ मिले थे, सहसा पीछे से आक्रमण कर, उसका सारा खजाना और माल लूट लिया। इससे औरंगजेब की कठिनाई बढ़ गई । सेना विचलित हो गई, पर वह विचलित नहीं हुआ। पर शुजा भेद - -
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