१३१ , के मुंह देखते थे ; कोई उपाय नहीं सूझता था ; कुछ नहीं मालूम था कि क्षण-भर में क्या हो जायगा । जब दारा शिकोह स्त्रियों से मिलकर क़नात के बाहर आया, तब मैंने देखा कि उसके मुख पर मुर्दनी-सी छा रही है। वह कभी इससे कुछ कहता है, कभी इससे कुछ बात करता है। एक साधारण सिपाही से भी पूछता है कि अब क्या करना चाहिए। जब उसने देखा कि प्रत्येक व्यक्ति डरा और घबराया हुआ मालूम होता है, तब उसे विश्वास हो गया कि सम्भवतः अब इनमें से एक भी मेरा साथ न देगा। वह बड़ा ही हैरान था कि अब क्या होगा, किधर जाना चाहिए, यहाँ ठहरने से तो खराबी ही खराबी दीखती है। "इस तीन दिन की अवधि में जब कि मैं दारा के साथ था, हम लोगों को रात-दिन बिना कहीं ठहरे हुए जाना पड़ा । गर्मी ऐसी प्रचण्ड थी, और धूल इतनी उड़ती थी कि दम घुटा जाता था। मेरी बहली के तीन बहुत सुन्दर और गुजराती बैलों में से एक मर चुका था, दूसरा मरने की दशा को पहुँच चुका था, और तीसरा इतना थक चुका था कि चल नहीं सकता था। यद्यपि दारा बहुत चाहता था कि मैं उसके साथ रहूँ, विशेषकर इस कारण से कि उसकी एक बेगम के पैर में बहुत बुरा घाव था, पर वह इस दुर्दशा को पहुँच गया था कि धमकाने और अनुनय-विनय करने पर भी किसी ने उसको मेरी सवारी के लिये कोई घोड़ा या बैल या ऊँट नहीं दिया। जब कोई सवारी नहीं मिली, तब लाचार होकर मैं पीछे रह गया । दारा को चार पाँच सौ सवारों के साथ जाते देखकर (क्योंकि घटते-घटते अब उसके साथ इतने ही सवार रह गये थे) मैं एकदम रो पड़ा । परन्तु अब तक भी दो हाथी उसके साथ थे, जिन पर लोग कहते थे कि रुपये और अशर्फ़ियाँ लदी हुई हैं। उस समय मैं समझा था कि दारा ठट्ठ की ओर जायगा। वर्तमान अवस्थाओं को देखते हुए यह उपाय कदाचित् बुरा नहीं था, पर वास्तविक बात तो ऐसी है कि इधर भी विपत्ति का सामना था और उधर भी। मुझे कदापि ऐसी आशा नहीं थी कि वह उस मरुस्थल से जो अहमदा- बाद और ठट्ठा के बीच में है, कुशलपूर्वक बचकर निकल जायगा। हुआ भी ऐसा ही। उसके साथियों में से बहुत-सी स्त्रियाँ मर गईं, और पुरुषों पर तो ऐसी आपत्ति आई कि कुछ तो भूख-प्यास और थकावट से मर गये,
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